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________________ श्रीवीर स्वामीका जन्म और उनके कार्य एक समय वह था जब ब्राह्मण धर्मका बोलवाला था और राजे लोग उनके हाथकी कठपुतली थे । यह बात कुछ निरी गप्प नहीं है किन्तु इस बातकी पुष्टि उनके शास्त्रों और पुराणोंरो ही होती है । देखिये शूद्रोंके लिये मनुस्मृतिके आठवें अध्यायमें क्या लिखा है । एकजातिद्विजातोस्तु वाचा दारुणया क्षिपन् । जिव्हायाः प्राप्नुयाच्छेदं जगन्यप्रभवो हि सः ॥२७०।। नामजातिग्रहं त्वेषामभिद्रोहेण कुर्वतः । निक्षेप्योऽयोमयः शंकुवलन्नास्ये दशांगुलः ॥२७१॥ धर्मोपदेशं दर्पण विप्राणामस्य कुर्वतः । तप्तमासचेयेत्तैलं वक्त्रे श्रोत्रे च पार्थिवः ।।२७२।। अर्थ-यदि शूद्र ब्राह्मणोंका कठोर वचनोंके द्वारा तिरस्कार करे तो उसकी जिह्वा काट लेनी चाहिये क्योंकि वह शूद्र है । उसी प्रकार यदि वह ईर्षासे ब्राह्मणोंके नामादिका अनुकरण करे तो तपाई हुई दश अंगुल लम्बी सलाई उसके मुख में घुसेड़ देना चाहिए इतना ही क्यों यदि वह अभिमानसे ब्राह्मणोंको धर्मका उपदेश करे तो उसके मुख और कानोंमें तपाया हुआ तेल डालना चाहिये। पितरोंके सम्बन्धमें मनुस्मृतिके तीसरे अध्यायमें लिखा है। तिलैीहियैवर्मापरेद्धिर्मलफलेन वा दत्तेन मासं तृप्यंति विधिवत्परो नृणाम् ॥२६७।। भावार्थ-तिल आदिके देनेसे पितर लोक एक महीना संतुष्ट रहते हैं और मछलीके मांसका भोजन करानेसे दो महीना, हरिणके मांससे तीन महीना, भेड़के मांससे चार महीना, पक्षीके मांससे पांच महीना, बकराके मांससे छह महीना, कबूतरके मांससे सात महीना, विशेष हरिणके मांससे आठ महीना, रौरवके मांससे नव महीना, भैंसा और शुअरके मांससे दश महीना, खरगोश और कछवाके मांससे ग्यारह महीना, दुध आदि पक्वान्नसे बारह महीना तप्त रहते हैं यदि उन्हें सर्वदाके लिये तृप्त करना है तो लालरंगके मेढेका भोजन कराना चाहिये उसी प्रकार मधु आदि भी देना चाहिये । व्यभिचारके सम्बन्धमें दण्डविधान करते हये मनुस्मृतिकार आठवें अध्यायमें लिखते हैं । मौण्ड्यं प्राणांतिको दंडो ब्राह्मणस्य विधीयते । इतरेषां तु वर्णानां दंडःप्राणांतिको भवेत् ।।३७९।। शूद्रो गुप्तमगुप्तं वा द्वैजातं वर्णमावसन् । अगुप्तमंगसर्वस्वैगुप्तं सर्वेण हीयते ॥३७४।। अगुप्ते क्षत्रियावैश्ये शूद्रां वा ब्राह्मणो ब्रजन् । शताति पश्चादण्डयःस्यात्सहस्रं त्वन्त्यजस्त्रियम् ।। __ भावर्थ-यदि ब्राह्मणने व्यभिचार किया हो तो उसके शिरका मुंडन ही उसका प्रायश्चित है और यदि क्षत्रिय या वैश्य तथा शूद्रने व्यभिचार किया हो तो इसका प्रायश्चित इन्हें प्राणांत देना चाहिये । शूद्रने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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