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________________ वर्ण व्यवस्थाका आन्तर रहस्य अन्य देशोंसे भारतवर्षकी स्थिति सर्वथा भिन्न है । वैदिक धर्मकी कृपासे यहाँका मानव समाज मुख्यतः चार वर्णों और अनेक जातियों व उपजातियोंमें विभक्त हो गया है जब कि अन्य देशोंमें ऐसा कोई विभाग नहीं दिखाई देता है। हजारों वर्षोंसे भारतवर्षकी कमजोरी और परतन्त्रताका एक कारण यह भी है। इस जातीय चढाओढ़ने देशके नैतिक बलका तो नाश किया ही है साथ ही वह भौगोलिक दृष्टिसे एक होकर भी भीतरसे अनेक भागोंमें बँट गया है। इधर कांग्रेसकी बागडोर सम्हालनेके बाद महात्मा गाँधीने जीवनमें श्रम, शम और समकी प्रतिष्ठा करनेके लिये कुछ समान भूमिका तैयार करनेका प्रयत्न किया था और अंशतः वे उसमें सफल भी हुए थे, किन्त कांग्रेसकी वर्तमान नीति इतनी कमजोर और लचर है जिससे तत्काल इस समस्याका हल होना कठिन ही दिखाई देता है। कांग्रेस हरिजनोंका जीवनस्तर तो सुधारना चाहती है पर वह शेष तीन वर्षों में आये हुए अन्तरको दूर करनेके लिये कुछ भी प्रयत्न नहीं कर रही है । इससे देशके सामाजिक जीवनमें थोड़ा बहत सुधार होकर भी उसमें क्रान्तिकारी परिवर्तन नहीं हो सकेगा। भारतीय साहित्यका आलोडन करनेसे ज्ञात होता है कि देशकी वर्तमान सामाजिक व्यवस्थाका मुख्य आधार मनुस्मृति है । उसमें चार वर्णों की उत्पत्ति ब्रह्मासे बतला कर उनके अलग-अलग कर्तव्य निश्चित इसके अनुसार अध्ययन, अध्यापन, दान और प्रतिग्रह ये ब्राह्मणोंके कर्तव्य है, प्रजाकी रक्षा, दान, पूजा, अध्ययन और इन्द्रियोंके विषयोंमें अनासक्ति से क्षत्रियोंके कर्तव्य हैं, पशुओंकी रक्षा, दान, पूजा अध्ययन, वाणिज्य, धनकी वृद्धि करना और कृषि ये वैश्योंके कर्तव्य है तथा असूया रहित होकर ब्राह्मण आदि तीन वर्षों की सेवा करना यह शूद्रोंका कर्तव्य है। मनुस्मृतिमें दूसरे वर्गों की अपेक्षा ब्राह्मणको अनिर्बन्ध अधिकार दिये गये हैं। चरित्रबलमें हीन होनेपर भी वे सबसे श्रेष्ठ मान लिये गये हैं। साधारणतः जैन पुराणोंमें भी चार वर्णोंकी चर्चा देखनेको मिलती है। आदि पुराणमें बतलाया है कि युगके आदिमें भगवान् ऋषभदेवने गुण कर्मके अनुसार क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीन वर्गों की स्थापना की थी । इस अवस्थाके अनुसार जो शस्त्र धारण कर आजीविका करते थे वे क्षत्रिय इस नामसे अभिहित किये गये थे, जो खेती, व्यापार और पशुओंका पालन कर आजीविका करते थे वे वैश्य इस नामसे अभिहित किये गये थे और जो क्षत्रियों व वैश्योंकी शुश्रूषा कर आजीविका करते थे वे शूद्र इस नामसे अभिहित किये गये थे। आदिपुराणके अनुसार ब्राह्मण वर्णकी स्थापना ऋषभदेवने नहीं की थी किन्तु कुछ काल बाद उनके प्रथम पुत्र भरतने व्रती श्रावकोंको ब्राह्मण संज्ञा दी थी और उन्हें ब्राह्मण वर्णका कहा था। इसी प्रकार बौद्ध परम्परामें भी चार वर्णोंका उल्लेख देखनेको मिलता है। धम्मपदमें एक गाथा आई है। उसका आशय यह है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये नाम अलग अलग कर्मके अनुसार रखे गये थे । यह गाथा जैन आगम उत्तराध्ययन सूत्र में भी पाई जाती है। यद्यपि वर्ण व्यवस्थाके सम्बन्धमें जैन और बौद्ध परम्पराका आशय एक है पर वैदिक परम्परासे उसमें मौलिक अन्तर है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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