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________________ ५४० : सिद्धान्ताचायं पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ रात्रिमें जब श्रावक ही सब प्रकारके आरम्भसे विरत हो जाता है, ऐसी अवस्थामें वह पूजाका आरम्भ कैसे करेगा, अर्थात नहीं करेगा, क्योंकि इस कालमें स्थूल-सूक्ष्म जीवोंका अधिक संचार होने लगता है। इसे बीसपन्थी भाई भी समझते हैं। हठ और विवेकमें बड़ा अन्तर है । हम तो यही चाहते हैं कि वे हठका मार्ग छोड़कर विवेकका मार्ग अंगीकार करें। ऐसा नियम है कि पूर्वोका अध्ययन श्राविकाकी बातको छोड़िये आयिकाको भी नहीं करना चाहिये ऐसी आगमकी आज्ञा है । प्रवचन उसे बहिनोंमें ही करना चाहिये, क्योंकि जिस गादी पर बैठकर पुरुष प्रवचन करते हैं वह परम्परासे प्राप्त आचार्योंकी गही है। वर्तमान कालमें इस नियमका पालन तो श्वेताम्बर भाई. बहिन भी करते हैं। फिर बीसपन्थका नाम लेकर दिगम्बर उसका उल्लंघन करें यह जिनमार्ग नहीं है। आज कल बीसपन्थी बहिनोंने ये सब मर्यादा त्याग दी है। इसका विचार उन्हींको करना है कि किस बातमें हमारे धर्मकी रक्षा होती है। विदुषी होना और बात है और आगमकी आज्ञाका उल्लंघन कर चलना और बात है। इस प्रकार विचारकर देखा जाय तो मूलसंघ कुन्दकुन्दाचार्यके आम्नायके अन्तर्गत शुद्धाम्नाय तेरापन्थ ही जिनधर्मकी उपासनाका सच्चा मार्ग है, अन्य नहीं यह सिद्ध हुआ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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