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________________ ५४२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ वैदिक परम्पराके अनुसार प्रत्येक वर्णकी प्राप्ति जन्मसे होती है। जो जिस वर्णमें उत्पन्न होता है उसे जीवन भर उस वर्णके कर्तव्योंका पालन करना पड़ता है। उसका यही स्वधर्म है। चार पुरुषार्थों में उल्लिखित धर्म पुरुषार्थ भी यही है । मोक्ष पुरुषार्थ इससे भिन्न है । इस व्यवस्थाके अनुसार दानका स्वीकार और अध्यापन ये कार्य ब्राह्मण ही कर सकता है। अन्य तीन वर्णके लोग न तो दान ले सकते हैं और न अध्यापन कार्य ही कर सकते हैं। शूद्र तो शुश्रूषा करने के सिवा और किसी बातका अधिकारी माना ही नहीं गया है । अध्ययन, दान और पूजा ये कार्य ऐसे हैं जो बाह्मणोंके सिवा क्षत्रिय और वैश्य भी कर सकते हैं पर शूद्रको इन कार्योंके करनेका भी अधिकार नहीं दिया गया है । वे सदा मूर्ख और पंगु बने रहें इसकी पूरी व्यवस्था की गई है। यों तो अब वैदिक परम्पराके अनुसारकी गई व्यवस्थाका अन्त हो रहा है। शूद्रोंको वे सब अधिकार मिल रहे हैं जो उनसे छीन लिये गये थे । वे अब मन्दिर जा सकते हैं, अध्ययन अध्यापनका कार्य कर सकते हैं, आदर सत्कारमें हिस्सा बटा सकते हैं, सबके साथ बराबरीसे बैठ कर भोजन, पान कर सकते हैं, सदाचारका स्वयं पालन कर सकते है और दूसरोंसे इसका पालन करा सकते हैं। उनके प्रति ब्राह्मण धर्मने जो घृणा पैदा की थी वह अब दूर होने लगी है। अब अधिकतर लोग यह समझने लगे हैं कि जैसे हम मनुष्य हैं वैसे वे भी मनुष्य हैं। हमसे उनमें कोई अन्तर नहीं है। फिर भी अभी ऐसे कितने ही मनुष्य शेष हैं जो इन परिवर्तनोंका विरोध कर रहे हैं और अपनी पुराणी प्रभुताको जीवित रखना चाहते हैं। किन्तु अब स्थिति इतनी अधिक बदल गई है जिससे देशका पीछे लौटना असम्भव है । वे राजा, जो इस व्यवस्थाको दृढमूल करने में सहायक थे अब धूलिधूसरित हो कोने में पड़े सिसक रहे हैं । सामन्तों और परिग्रहवादियोंकी भी यही दशा होनेवाली है और आशा है कि निकट भविष्यमें ईश्वरको भी अपराधियोंके कठघरेमें ला कर खड़ा किया जायगा । अब उसके नामपर निकलनेवाली विज्ञप्तियोंको सुननेवाला कोई नहीं रहेगा । सब उसे उपेक्षा और तिरस्कारकी दृष्टिसे देखने लगेंगे । अब तो ऐसे समाजका उदय होकर ही रहेगा जिसमें सबको समान रूपसे विकास करनेका अवसर मिलेगा। इतने विवेचनसे यद्यपि यह स्पष्ट हो जाता है कि वैदिक परम्पराके अनुसार जो वर्णव्यवस्था चालू है वह सर्वथा अनुपयुक्त है । उससे मानव समाजका न तो कभी कल्याण हुआ है और न हो सकता है । फिर भी विश्वमें किसी प्रकारकी सामाजिक व्यवस्था ही न हो यह हमारा मत नहीं है। पश्चिमीय देशोंमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन शब्दोंका व्यवहार न भी किया जाता हो तो भी वहाँ कोई न कोई व्यवस्था तो है ही। हम ऐसी ही व्यवस्थाके पक्षपाती हैं जिससे मानव समाजका प्रत्येक व्यक्ति अपनी वैयक्तिक स्वतंत्रताका अनुभव करने में पूर्ण समर्थ हो । इसमें सन्देह नहीं कि पहिले हम आदिपुराणके अनुसार जिस व्यवस्थाका निर्देश कर आये हैं उसमें बहुत कुछ अंशमें यह गुण मौजूद है । आदि पुराणमें वर्ण व्यवस्थाका निर्देश करते हुए प्रारम्भमें जो छह कर्म बतला आये हैं, वे हैं-असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प । इन छहोंमें पूजा, दान, अध्ययन, अध्यापन और प्रतिग्रह इनका अन्तर्भाव नहीं होता । असिकर्म आदि आजीविकाके साधन हैं और पूजा आदि धर्मके साधन हैं मुख्यता आजीविकाको है धर्मकी नहीं । वर्णका अर्थ है बाहिरी रूप रंग। जिससे बाहरी रंग ढंगकी पहिचान होती है वह वर्ण है और जिससे आत्माकी आन्तर परिणति जानी जाती है वह धर्म है। वर्ण और धर्ममें यही अन्तर है। आदिपुराणके अनुसार की गई वर्ण व्यवस्थाको समझनेके लिये इस अन्तरको जानना जरूरी है। उसमें किसीके वैयक्तिक अधिकार पर कुठाराघात न हो इस बात पर पूरा ध्यान रखा गया है। इसके अनुसार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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