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________________ ५०४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ मोहनीय-राग, द्वेष और मोहको पैदा करनेवाले कर्मकी मोहनीय संज्ञा है। इसके दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय ये दो भेद हैं । दर्शन मोहनीयके तीन और चारित्र मोहनीय के पच्चीस भेद हैं। आयु-नरकादि गतियोंमें अवस्थानके कारणभूत कर्मकी आयु संज्ञा है। इसके चार भेद हैं। नाम-नाना प्रकारके शरीर, वचन और मन तथा जीवकी विविध अवस्थाओंके कारणभूत कर्मकी नाम संज्ञा है। इसके तिरानवे भेद हैं। गोत्र-नीच, उच्च सन्तान (परम्परा) के कारणभत कर्मकी गोत्र संज्ञा है। इसके दो भेद है । जैनधर्म जाति या आजीवकाकृत नीच उच्च भेद न मानकर इसे गुणकृत मानता है। अच्छे आचारवालोंकी परम्परामें जो जन्म लेते हैं या जो ऐसे लोगोंकी सत्संगति करते हैं या जो मानवोचित आचारको जीवनमें उतारते हैं वे उच्चगोत्री माने गये हैं और जिनकी स्थिति इनके विरुद्ध है वे नीचगोत्री माने गये हैं। नीचगोत्री बुरे आचारका त्याग करके उसी पर्यायमें उच्चगोत्री हो सकता है। जैनधर्म के अनुसार ऐसे जीवको श्रावक और मुनि होनेका पूरा अधिकार है । अन्तराय-जीवके दानादि भाव प्रकट न होनेके निमित्तभूत कर्मकी अन्तराय संज्ञा है । इसके पाँच भेद है। ये सब कर्म मुख्यत. चार भागोंमें बँटे हए हैं जीवविपाकी, पदगलविपाकी, क्षेत्रविपाकी और भवोविपाकी । जिनका विपाक जीवमें होता है वे जीवविपाकी है । जिनका विपाक जीवसे एकक्षेत्रावगाह सम्बन्धकप्राप्त हुए पुद्गलोंमें होता है वे पुद्गलविपाकी हैं। जिनका विपाक भवमें होता है वे भवविपाकी हैं और जिनका विपाक क्षेत्र विशेषमें होता है वे क्षेत्र विपाकी है। ये सब कर्म पुण्य और पापके भेदसे दो प्रकारके हैं। ये भेद अनुभाग बन्धकी अपेक्षासे किये गये हैं। दान पूजा, मन्दकषाय, साधुसेवा आदि शुभ परिणामोंसे जिन कर्मोका उत्कृट अनुभाग प्राप्त होता है वे पुण्यकर्म हैं। और मदिरापान, मांससेवन, परस्त्रीगमन, शिकार करना, जुआ खेलना, रात्रि भोजन करना, बुरे भाव रखना, ठगी दगाबाजी करना आदि अशभ परिणामोंसे जिन कर्मोका उत्कृट अनुभाग प्राप्त होता है वे पापकर्म है। अनुभाग-फलदानशक्ति घाति और अघातिके भेदसे दो प्रकारकी है। धातिरूप अनुभागशक्तिके तारतम्य की अपेक्षासे चार भेद हो जाते हैं। लता, दारु (लकड़ी) अस्थि और शैल । यह पापरूप ही होती है । किन्तु अघातिरूप अनुभागशक्ति पुण्य और पाप दोनों प्रकारकी होती है । इसमेंसे प्रत्येकके चार-चार भेद हैं । गुड़, खाँड़, शर्करा और अमृत ये पुण्यरूप अनुभाग शक्तिके चार भेद हैं और निम्ब, कंजीर, विष और हलाहल ये पापरूप अनुभागशक्तिके चार भेद हैं । जिसका जैसा नाम है वैसा उसका फल है । ___ जीवके गुण (शक्ति) दो भागोंमें बंटे हुए हैं-अनुजीवीगुण और प्रतिजीवी गुण । जिन गुणोंका सद्भाव केवल जीवमें पाया जाता है वे अनुजीवी गुण हैं और जिनका सद्भाव जीवमें पाया जाकर भी जीवके सिवा अन्य द्रव्योंमें भी यथायोग्य पाया जाता है वे प्रतिजीवी गुण हैं। इन गुणोंके कारण ही कर्मोके घाति और अघाति ये भेद किये गये हैं। ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व, चरित्र, वीर्य, लाभ, दान, भोग, उपभोग और सुख ये अनुजीवी गुण है । ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय ये कर्म उक्त गणोंका घात करनेवाले होनेसे घातिकर्म है और शेष अघाति कर्म है।। कर्मकी विविध अवस्थाएँ-जीवकी प्रति समय जो अवस्था होती है उसका निमित्त कर्म है। यद्यपि जीवकी वह अवस्था उसी समय नष्ट हो जाती है अन्य समयमें अन्य होती है पर संस्काररूपसे वह कर्ममें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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