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________________ चतुर्थ खण्ड : ५०३ तथा आत्माके जिन भावोंसे इन द्रव्य कर्मोंका उससे सम्बन्ध होता है वे भावकर्म कहलाते हैं । द्रव्यकर्मकी चर्चा करते हुए अकलंक देवने राजवातिकमें लिखा है 'यथा भाजनविशेषे प्रक्षिप्तानां विविधरसबीजपुष्पफलानां मदिराभावेन परिणामः तथा पुद्गलनामपि आत्मनि स्थितानां योगकषायवशात् कर्मभावेन परिणामो वेदितव्यः' । 'जैसे पात्र विशेषमें डाले गये अनेक रसवाले बीज, पुष्प और फलोंका मदिरारूपसे परिणमन होता है उसी प्रकार आत्मामें स्थित पुद्गलोंका भी योग-कषायके कारण कर्मरूपसे परिणमन होता है ।' योग और कषायके बिना पुद्गल परमाणु कर्मभावको नहीं प्राप्त होते, इसलिये योग और कषाय तथा कर्मभावको प्राप्त हुए पुद्गल परमाणु ये दोनों कर्म कहलाते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। कर्मबन्धके हेतु-यह हम पहले ही बतला आये हैं कि आत्मा मिथ्यात्व' (अतत्त्वश्रद्धा या तत्त्वरुचिका अभाव) अविरति (त्यागरूप परिणतिका अभाव) प्रमाद (अनवधानता) कषाय (क्रोधादिभाव) और योग (मन, वचन और कायका व्यापार) के कारण अन्य द्रव्यसे बन्धको प्राप्त होता है। पर इनमें बन्धमात्रके प्रति योग और कषायकी प्रधानता है। आगे बन्धके चार भेद बतलानेवाले हैं-उनमेंसे प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध योगसे होता है तथा स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध कषायसे होता है । आगममें योगको गरम लोहेकी और कषायको गोंदकी उपमा दी गई है। जिस प्रकार गरम लोहेको पानीमें डालने पर वह चारों ओरसे पानीको खींचता है ठीक यही स्वभाव योगका है और जिस प्रकार गोंदके कारण एक कागज दुहरे कागजसे चिपक जाता है ठीक यही स्वभाव कषायका है। योगके कारण कर्म परमाणुओंका आस्रव होता है और कषायके कारण वे बँध जाते हैं । इसलिए कर्मबन्धके मुख्य कारण पाँच होते हुए भी उनमें योग और कषायकी प्रधानता है। प्रकृति आदि चारों प्रकारके बन्धके लिये इन दो का सद्भाव अनिवार्य है। जब कर्मके अवान्तर भेदोंमें कितने कर्म किस हेतुसे बंधते हैं इत्यादि रूपसे कर्मबन्धके सामान्य हेतुओंका वर्गीकरण किया जाता है तब वे पाँच प्राप्त होते हैं और जब प्रकृति आदि · चार प्रकारके बन्धोंमें कौन बन्ध किस हेतुसे होता है इसका विचार किया जाता है तब वे दो प्राप्त होते है । ये कर्मबन्धके सामान्य कारण हैं, विशेष कारण जुदे-जुदे हैं । तत्त्वार्थसूत्रमें विशेष कारणोंका निर्देश आस्रवके स्थानमें किया गया है । कर्मके भेद-जैनदर्शन प्रत्येक द्रव्यमें अनन्त शक्तियाँ मानता है। जीव भी एक द्रव्य है अतः उसमें भी अनन्त शक्तियाँ हैं । जब यह संसार दशामें रहता है तब उसकी वे शक्तियाँ कर्मसे आवृत रहती हैं। फलतः कर्मके अनन्त भेद हो जाते हैं। किन्तु जीवकी मख्य शक्तियोंकी अपेक्षा कर्मके आठ भेद किये गये हैं। यथा-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय । ज्ञानावरण-जीवकी ज्ञानशक्तिको आवरण करनेवाले कर्मकी ज्ञानावरण संज्ञा है। इसके पाँच भेद है। दर्शनावरण-जीवकी दर्शन शक्तिको आवरण करनेवाले कर्मकी दर्शनावरण संज्ञा है। इसके नो भेद है। वेदनीय-सुख और दुःखका वेदन कराने वाले कर्मकी वेदनीय संज्ञा है । इसके दो भेद हैं । १. 'मित्वात्वाविरतिप्रमादकषाययोगाः बन्धहेतवः'-त० सू०८-१ । २. 'जोगा पयडिपदेसा टिदिअणुभागो कसायदो होदि ।'-द्रव्य० गा० ३१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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