SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 542
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थ खण्ड : ५०५ अंकित रहती है । प्रति समयके कर्म जुदे-जदे हैं। और जबतक वे फल नहीं दे लेते नष्ट नहीं होते । बिना भोगे कर्मका क्षय नहीं। 'नाभुक्तं क्षीयते कर्म ।' कर्मका भोग विविध प्रकारसे होता है। कभी जैसा कर्मका संचय किया है उसी रूपमें उसे भोगना पड़ता है। कभी न्यन, अधिक या विपरीत रूपसे उसे भोगना पड़ता है। कभी दो कर्म मिलकर एक काम करते हैं । साता और असाता इनके काम जुदे-जुदे हैं, पर कभी ये दोनों मिलकर सुख या दुःख किसी एकको जन्म देते हैं। कभी एक कर्म विभक्त होकर विभागानुसार काम करता है। उदाहरणार्थ मिथ्यात्वका मिथ्यात्व. सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यकप्रकृतिरूपसे विभाग हो जानेपर इनके कार्य भी जुदे-जुदे हो जाते हैं। कभी नियत कालके पहले कर्म अपना कार्य करता है तो कभी नियत कालसे बहुत समय बाद उसका फल देखा जाता है । जिस कर्मका जैसा नाम, स्थिति और फलदानशक्ति है उसीके अनुसार उसका फल मिलता है यह साधारण नियम है । अपवाद इसके अनेक हैं। कुछ कर्म ऐसे अवश्य हैं जिनकी प्रकृति नहीं बदलती । उदाहरणार्थ चार आयुकर्म । आयु कर्मोमें जिस आयुका बन्ध होता है उसी रूपमें उसे भोगना पड़ता है। उसके स्थिति-अनुभागमें उलट फेर भले ही हो जाय, पर भोग उनका अपनी-अपनी प्रकृतिके अनुसार ही होता है। यह कभी सम्भव नहीं कि नरकायुको तिर्यंचायुरूपसे भोगा जा सके या तियंचायुको नरकायुरूपसे भोगा जा सके। शेष कर्मोके विषयमें ऐसा कोई नियम नहीं है। मोटा नियम इतना अवश्य है कि मूल कर्ममें बदल नहीं होता। इस नियमके अनुसार दर्शनमोहनीय और चरित्रमोहनीय ये मूल कर्म मान लिये गये हैं। कर्मकी ये विविध अवस्थाएँ हैं जो बन्ध समयसे लेकर उनकी निर्जरा होने तक यथासम्भव होती हैं । इनके नाम ये हैं बन्ध, सत्त्व, उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण, उदय, उदीरणा, उपशान्त, निधत्ति और निकाचना । बन्ध-कर्म वर्गणाओंका आत्मप्रदेशोंसे सम्बद्ध होना तन्ध है। इसके प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश ये चार भेद हैं। जिस कर्मका जो स्वभाव है वह उसकी प्रकृति है । यथा ज्ञानावरणका स्वभाव ज्ञानको आवृत्त करना है। स्थिति कालमर्यादाको कहते हैं। किस कर्मकी जघन्य और उत्कृष्ट कितनी स्थिति पड़ती है इस सम्बन्धमें अलग-अलग नियम हैं। अनुभाग फलदान शक्तिको कहते हैं। प्रत्येक कर्ममें न्यूनाधिक फल देनेकी योग्यता होती है। प्रति समय बँधनेवाले कर्मके परमाणुओंकी परिगणना प्रदेशबन्धमें क जाती है। सत्त्व-बंधनेके बाद कर्म आत्मासे सम्बद्ध रहता है । तत्काल तो वह अपना काम करता ही नहीं । किन्तु जब तक वह अपना काम नहीं करता है तबतक उसकी वह अवस्था सत्ता नामसे अभिहित होती है । उत्कर्षण आदिके निमित्तसे होनेवाले अपवादको छोड़कर साधारणतः प्रत्येक कर्मका नियम है कि वह बँ धनेके बाद कबसे काम करने लगता है। बीचमें जितने काल तक काम नहीं करता है उसकी आबाधाकाल संज्ञा है। - आबाधाकालके बाद प्रति समय एक-एक निषेक काम करता है। यह क्रम विवक्षित कर्मके पूरे होने तक चालू रहता है । आगममें प्रथम निषेककी आबाधा दी गई है। शेष निषेकोंकी आबाधा क्रमसे एक-एक समय बढ़ती जाती है । इस हिसाबसे अन्तिम निषेककी आबाधा एक समय कम कर्मस्थिति प्रमाण होती है । आयुकर्मके प्रथम निषेककी आबाधाका क्रम जुदा है । शेष क्रम समान है । उत्कर्षण-स्थिति और अनुभागके बढ़ानेकी उत्कर्षण संज्ञा है । यह क्रिया बन्धके समय ही सम्भव है । अर्थात् जिस कर्मका स्थिति और अनुभाग बढ़ाया जाता है उसका पुनः बन्ध होने पर पिछले बँधे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy