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________________ ५०२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ रूपसे स्वीकार किया गया है। और दूसरे वे जो प्रत्येक कार्यके अलग-अलग होते हैं। जैसे घट पर्यायकी उत्पत्ति में कुम्हार निमित्त है और जीवकी अशद्धताका निमित्त कर्म है आदि। जब तक जीवके साथ कर्मका सम्बन्ध है तभी तक ये राग, द्वेष और मोह आदि भाव होते हैं, कर्मके अभावमें नहीं। इसीसे संसारका मुख्य कारण कर्म कहा गया है । घर, पुत्र, स्त्री, धन आदिका नाम संसार नहीं है। वह तो जीवको अशुद्धता है जो कर्मक सद्भावमें ही पाई जाती है । इसलिये संसार और कर्मका अन्वय व्यतिरेक सम्बन्ध है ऐसा यहाँ जानना चाहिये । जबतक यह सम्बन्ध बना रहता है तबतक यह चक्र यों ही घूमा करता है। इसी बातको विस्तारसे स्पष्ट करते हुए पंचास्तिकायमें लिखा है 'जो खलु संसारत्थो जीवो तत्तो दु होदि परिणामो। परिणामादो कम्म कम्मादो होदि गदीसु गदी ॥१२८।। गदिमधिगदस्स देहो देहादो इंदियाणि जायते । तेहिं दु विसयगहणं तत्तो रागो व दोसो वा ।।१२९।। जायदि जीवस्सेवं भावो संसारचक्कवालम्मि । 'जो जीव संसारमें स्थित है उसके राग-द्वेषरूप परिणाम होते हैं। परिणामोंसे कर्म बँधते है। कर्मोसे गतियोंमें जन्म लेना पड़ता है। इससे शरीर होता है। शरीरके प्राप्त होनेसे इन्द्रियाँ होती हैं। इन्द्रियोंसे विषयोंका ग्रहण होता है। विषय ग्रहणसे राग और द्वेषरूप परिणाम होते हैं। जो जीव संसार-चक्रमें पड़ा है उसकी ऐसी अवस्था होती है।' इस प्रकार संसारका मुख्य कारण कर्म है यह ज्ञात होता है । कर्मका स्वरूप-कर्मका मुख्य अर्थ क्रिया है। क्रिया अनेक प्रकारकी होती है। हँसना, खेलना, कृदना, उठना, बैठना, रोना, गाना, जाना, आना आदि ये सब क्रियाएँ हैं। क्रिया जड़ और चेतन दोनोंमें पाई जाती है । कर्मका सम्बन्ध आत्मासे है, अतः केवल जड़की क्रिया यहाँ विवक्षित नहीं है । और शुद्ध जीव निष्क्रिय है। वह सदा ही आकाशके समान निर्लेप और भित्तीमें उकीरे गये चित्रके समान निष्कम्प रहता है । यद्यपि जैन दर्शनमें जड़ चेतन सभी पदार्थोंको उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य स्वभाववाला माना गया है। यह स्वभाव क्या शुद्ध और क्या अशुद्ध सब पदार्थोंका पाया जाता है। किन्तु यहाँ क्रियाका अर्थ परिस्पंद लिया है। परिस्पन्दात्मक क्रिया सब पदार्थों की नहीं होती। वह पुद्गल और संसारी जीवके ही पाई जाती है। इसलिये प्रकृतमें कर्मका अर्थ संसारी जीवकी क्रिया लिया गया है। आशय यह है कि संसारी जीवके प्रति समय परिस्पन्दात्मक जो भी क्रिया होती है वह कर्म कहलाता है। यद्यपि कर्मका मुख्य अर्थ यही है तथापि इसके निमित्तसे जो पुद्गल परमाणु ज्ञानावरणादि भावको प्राप्त होते है वे भी कर्म कहलाते हैं। अमृतचन्द्रसूरिने प्रवचन सारकी टीकामें इसी भावको दिखलाते हुए लिखा है 'क्रिया खल्वात्मना प्राप्यत्वात्कर्म तन्निमित्तप्राप्तपरिणामः पुद्गलोऽपि कर्म ।' पृ० १६५ । जैनदर्शनमें कर्मके मुख्यतया दो भेद किये गये हैं द्रव्यकर्म और भावकर्म। ये भेद जातिकी अपेक्षासे नहीं किये जाकर कार्यकारणभावकी अपेक्षासे किये गये है । सदाकालसे जीव बद्ध और अशुद्ध इन्हीं के कारण हो रहा है। जो पुद्गल परमाणु आत्मासे सम्बद्ध होकर ज्ञानादि भावोंका घात करते हैं और आत्मामें ऐसी योग्यता लानेमें निमित्त होते हैं जिससे वह विविध शरीर आदिको धारण कर सके उन्हें द्रव्यकर्म कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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