SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 530
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थं खण्ड : ४९३ चूर्णि-यह मुक्ताबाई ज्ञानमन्दिर डभोईसे प्रकाशित हुई है। जैसा कि हम पहले निर्देश कर आये हैं इसके कर्ता चन्द्रषिमहत्तर प्रतीत होते हैं । आचार्य मलयगिरिने इसका खूब उपयोग किया है । वे चूर्णिकार की स्तुति करते हुए सप्ततिकाके ऊपर लिखी गई अपनी वृत्तिकी प्रशस्तिमें लिखते हैं ___ 'यरेषा विषमार्था सप्ततिका सुस्फुटीकृता सम्यक् । अनुपकृतपरोपकृतश्चूर्णिकृतस्तान् नमस्कुर्वे ॥' जिन्होंने इस विषम अर्थवाली सप्ततिकाको भले प्रकार स्फुट कर दिया है, निःस्वार्थ भावसे दूसरोंका उपकार करनेवाले उन चूर्णिकारको मैं (मलयगिरि) नमस्कार करता हूँ। सचमुच में यह चूणि ऐसी ही लिखी गई है। इसमें सप्ततिकाके प्रत्येक पदका बड़ी ही सुन्दरतासे खुलासा किया गया है। खुलासा करते समय अनेक ग्रन्थोंके उद्धरण भी दिये गये हैं। उद्धरण देते समय शतक, सत्कर्म, कषायप्राभृत' और 'कर्मप्रकृतिसंग्रहणीका इसमें भरपूर उपयोग किया गया है । जैसा कि पहले बतला आये हैं, इसमें ८९ गाथाओं पर टीका लिखी गई है । ७२ गाथाएँ वे ही हैं जिन पर मलयगिरि आचार्यने टीका लिखी है । १० अन्तर्भाष्य गाथाएँ हैं और सात अन्य गाथाएँ हैं । ये सात गाथाएँ हम पहले ग्रन्थकर्ताका निर्णय करते समय उद्धृत कर आये हैं । यद्यपि ग्रन्थके बाहरकी प्रकरणोपयोगी गाथाओंकी टीका करनेकी परिपाटी पुरानी है। धवला आदि टीकाओंमें ऐसी कई उपयोगी गाथाओंकी टीका दी गई है। पर वहाँ प्रकरण या अन्य प्रकारसे इसका ज्ञान करा दिया जाता है कि यह मूल गाथा नहीं है। किन्तु इस चूर्णिमें ऐसा समझनेका कोई आधार नहीं है । चूर्णिकार मूल गाथाका व्याख्यान करते समय गाथाके प्रारम्भका कुछ अंश उद्धृत करते हैं । यथा उवरयबंधे चउ पण नवंस० ति गाहा । ____ मलयगिरि आचार्यने जिन गाथाओंको मूलका नहीं माना है उनकी टीका करते समय भी चूणिकारने उसी पद्धतिका अनुसरण किया है। यथा सत्तट्ठ नव० गाहा। सत्तावीसं सुहुमे० गाहा । अणियट्टिवायरे थोण० गाहा । एत्तो हणइ. गांहा । इत्यादि। इससे यह निर्णय करने में बड़ी कठिनाई हो जाती है कि सप्ततिकाकी मूल गाथाएँ कौन कौन हैं। मालूम होता है कि 'गाहग्गं सयरीए' यह गाथा इसी कारण रची गई है। इसमें सप्ततिकाका इतिहास सन्निहित है। वर्तमानमें आचार्य मलयगिरिकी टीका ही ऐसी है जिससे सप्ततिकाकी गाथाओंका परिमाण निश्चित करनेमें सहायता मिलती है। इसीसे हमने गाथा संख्याका निर्णय करते समय आचार्य मलयगिरिकी टीकाका प्रमुखतासे ध्यान रखा है। वृत्ति-सप्ततिकाके ऊपर एक वृत्ति आचार्य मलयगिरिने भी लिखी है । वैदिक परम्परामें टीकाकारों में जो स्थान वाचसातिमिश्रका है। जैन परम्परामें वही स्थान मलयगिरि सुरिका है। इन्होंने जिन ग्रन्थोंपर १. 'एएसि विवरणं जहा सयगे।' १०४ । 'एएसि भेओ सरूवनिरूपणा जहा सयगे प० ५ । इत्यादि । २. संतकम्मे भणियं ।' ५० ७ । अण्णे भणति-सुस्सरं विगलिदियाण णत्खि, तण्ण, संतकम्मे उक्तत्वात ।' प० २२ । इत्यादि । ३. जहा कसायापहडे कम्मपगडि संगहणीए वा तहा वत्तव्वं ।' प० ६२ । ४. उव्वटणाविही जहा कम्मपगडीसगहणीए उब्वलणसंकमे तहा भाणियव्वं प० ६१ । 'विसेसपवंचो जहा कम्मपगडिसंगहणीए।' प० ६३ । इत्यादि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy