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________________ कर्ता , ३७८० ४९२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ रचनाकाल, विक्रमकी पांचवीं शताब्दी या इससे पूर्ववर्तीकाल ठहरता है । श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणने अपनी विशेषणवतीमें अनेक बार मित्तरीका उल्लेख किया है। श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणका काल विक्रमकी सातवीं शाताब्दि निश्चित है, अतः पूर्वोक्त कालको यदि आनुमानिक ही मान लिया जाय तब भी इतना तो निश्चित ही है कि विक्रमकी सातवीं शताब्दिके पहले इसकी रचना हो गई थी। इसकी पुष्टि दिगम्बर परम्परामें प्रचलित प्राकृत पंचसंग्रहसे भी होती है। प्राकृत पंचसंग्रहका संकलन विक्रमकी सातवीं शताब्दीके आस-पास हो चुका था । इसमें सप्ततिका संकलित है. अतः इसकी रचना प्राकृत पंचसंग्रहके रचनाकालसे पहले हो गई थी यह निश्चित होता है। टीकाएँ-यहाँ अब सप्ततिकाकी टीकाओंका संक्षेपमें परिचय करा देना आवश्यक प्रतीत होता है। प्रथम कर्मग्रन्थके पृष्ठ १७५ पर श्वेताम्बरीय कर्म विषयक ग्रन्थोंकी एक सूची छपी है। उसमें सप्ततिकाकी अनेक टीका टिप्पनियोंका उल्लेख है । पाठकोंकी जानकारीके लिये आवश्यक संशोधनके साथ हम उसे यहाँ दे रहे हैं । टीका नाम परिमाण रचनाकाल अन्तर्भाष्य गा. गा० १० अज्ञात अज्ञात भाष्य गाथा १९१ अभयदेव सूरि वि. ११-१२वीं श. चूर्णि पत्र १३२ अज्ञात अज्ञात श्लो० २३०० चन्द्रर्षि महत्तर अनु० ७वीं श० वृत्ति मलयगिरि सूरि वि. १२-१३वीं श. भाष्यवृत्ति " ४१५० मेरुतुंग सूरि _ वि.सं. १४४९ टिप्पन , ५७४ रामदेव वि. १२ वी. श. अवचूरि देखो नव्य कर्म गुणरत्न सूरि वि. १५वीं श. ग्रन्थकी अव० इनमें १ अन्तर्भाष्य गाथा, २ चन्द्रर्षि महत्तरकी चूणि और ३ मलयगिरि सूरिकी वृत्ति इन तीनका परिचय कराया जाता है। __ अन्तर्भाष्य गाथाएँ-सप्ततिकामें अन्तर्भाष्य गाथाएँ कुल दस हैं। ये विविध विषयोंका खुलासा करनेके लिये रची गई हैं। इनकी रचना किसनेकी इसका निश्चय करना कठिन है । सम्भव है प्रस्तुत सप्ततिका के संकलयिताने ही इनकी रचनाकी हो। खास खास प्रकरण पर कषायप्राभृतमें भी भाष्यगाथाएँ पाई जाती हैं और उनके रचयिता स्वयं कषायप्राभतकार हैं। बहुत संभव है इसी पद्धतिका यहाँ भी अनुसरण किया गया हो। ये चन्द्रषिमहत्तरकी चणि और मलयगिरिकी टीका इन दोनों में संगहीत हैं। मलयगिरिव इन्हें स्पष्टतः अन्तर्भाष्य गाथा कह कर संकलित किया गया है। चणिमें प्रारम्भकी सात गाथाओंको तो अन्तर्भाष्य गाथा बतलाया है किन्तु अन्तकी तीन गाथाओंका निर्देश अन्तर्भाष्य गाथारूपसे नहीं किया है । चूर्णिमें इन पर टीका भी लिखी गई है। १. सयरीय मोहबंधट्ठाणा पंचादओ कया पंच । अनिअट्टिणो छलत्ता णवादओदीरणा पगए ।।९०॥ आदि । विशेषणवती। २. इसका उल्लेख जैन ग्रन्थावलिमें मुद्रित बृहट्टिप्पनिकाके आधारसे दिया है। ३. इसका परिमाण २३०० श्लोक अधिक ज्ञात होता है। यह मुक्ताबाई ज्ञानमन्दिर डभोईसे प्रकाशित हो चुकी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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