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________________ चतुर्थ खण्ड : ४९१ कर्मप्रकृतिके कर्ता माने गये हैं। इस हिसाबसे विचार करनेपर कर्मप्रकृति, शतक और सप्ततिका ये तीनों ग्रंथ एक कर्तृत्व सिद्ध होते हैं। किन्तु कर्मप्रकृति और सप्ततिकाका मिलान करने पर ये दोनों एक आचार्यकी कृति हैं यह प्रमाणित नहीं होता, क्योंकि इन दोनों ग्रन्थों में विरुद्ध दो मतोंका प्रतिपादन किया गया है। उदाहरणार्थ-सप्ततिकामें अनन्तानुबन्धी चतुष्कको उपशम प्रकृति बतलाया गया है । किन्तु कर्मप्रकृतिके उपशमना प्रकरणमें 'नंतरकरणं उवसमो वा' यह कहकर अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी उपशमविधि और अन्तरकरण विधिका निषेध किया गया है। इस परसे निम्न तीन प्रश्न उत्पन्न होते हैं १. क्या शिवशर्म नाम के दो आचार्य हुए हैं-एक वे जिन्होंने शतक और सप्ततिकाकी रचनाकी है और दूसरे वे जिन्होंने कर्मक तिकी रचनाकी है ? २. शिवशर्म आचार्यने कर्मप्रकृतिकी रचना की, क्या यह किंवदन्तीमात्र है ? ३. शतक और सप्ततिकाकी कुछ गाथाओंमें समानता देखकर एककर्तृक मानना कहाँ तक उचित है ? यह की सम्भव है कि इनके संकलयिता एक ही आचार्य हो । किन्तु इनका संकलन विभिन्न दो आधारोंसे किया गया हो । जो कुछ भी हो । तत्काल उक्त आधारसे सप्ततिकाके कर्ता शिवशर्म ही हैं ऐसा निश्चित कहना विचारणीय है। एक मान्यता यह मी प्रचलित है कि सप्ततिकाके कर्ता चन्द्रर्षि महत्तर हैं। किन्तु इस मतकी पुष्टिमें कोई सबल प्रमाण नहीं पाया जाता । सप्ततिकाकी मूल ताडपत्रीय प्रतियोंमें निम्नलिखित गाथा पाई जाती है 'गाहग्गं सयरीए चंदमहत्तरमयाणुसारीए । टीगाइ निअमिआणं एगणा होइ नउई ओ॥' इसका आशय है कि चन्द्रर्षि महत्तरके मतका अनुसरण करनेवाली टीकाके आधारसे सप्ततिकाकी गाथाएँ ८९ हैं। किन्तु टवेकारने इसका अर्थ करते समय सप्ततिकाके कर्ताको ही चन्द्रमहत्तर बतलाया है। मालूम पड़ता है कि इसी भ्रमपूर्ण अर्थके कारण सप्ततिकाके कर्ता चन्द्रषिमहत्तर हैं इस भ्रान्तिको जन्म मिला है। प्रस्तुत सप्ततिकाके ऊपर जिस चूणिका उल्लेख हम अनेक बार कर आये है उसमें १० अन्तर्भाष्य गाथाओंको व ७ अन्य गाथाओंको मल गाथाओंमें मिलाकर कुल ८९ गाथाओं पर टीका लिखी गई है। मालूम होता है कि 'गाहग्गं सयरीए' यह गाथा इसी चूर्णिके आधारसे लिखी गई है। इससे दो बातोंका पता लगता है-एक तो यह कि चन्द्रषिमहत्तर उक्त चणि टीकाके ही कर्ता हैं सप्ततिकाके, नहीं और दूसरी यह कि चन्द्र षिमहत्तर इन ८९ गाथाओंको किसी न किसी रूपसे सप्ततिकाकी गाथाएँ मानते थे। ___इस प्रकार यद्यपि चन्द्रर्षिमहत्तर सप्ततिकाके कर्ता हैं इस मतका निरसन हो जाता है तथापि किस महानुभावने इस अपूर्व कृतिको जन्म दिया था इस बातका निश्चयपूर्वक कथन करना कठिन है । बहुत सम्भव है कि शिवशर्म सूरिने ही इसकी रचना की हो। यह भी सम्भव है कि अन्य आचार्य द्वारा इसकी रचनाकी गई हो । रचनाकाल-ग्रन्थकर्ता और रचनाकाल इनका सम्बन्ध है । एकका निर्णय हो जाने पर दूसरेका निर्णय करने में बड़ी सहायता मिलती है। ऊपर हम ग्रन्थकर्ताके विषयमें निर्देश करते समय यह सम्भावना प्रकट कर आये हैं कि या तो शिवशर्मसुरिने इसकी रचना की है या इसके पहले ही यह लिखा गया था। साधारणतः शिवशर्म सूरिका वास्तव्यकाल विक्रमको पाँचवीं शताब्दी माना गया है। इस हिसाबसे विचार करनेपर इसका १. देखो प्रकरण रत्नाकर ४ था भाग, पृ०८६९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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