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________________ ४८८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ । ज्ञान व्यवस्थित चला आया, किन्तु इसके बाद इसकी यथावत् परम्परा न चल सकी । धीरे-धीरे लोग इसे भूलने लगे और इस प्रकार मूल साहित्यका बहुत बड़ा भाग नष्ट हो गया ऊपर हम मूलभूत जिस कर्म साहित्यका उल्लेख कर आये हैं उसमेंसे कर्मप्रवादका तो लोप हो ही गया । केवल अग्रायणीय पूर्व और ज्ञानप्रवाद पूर्वका कुछ अंश बच रहा । तब श्रुतधारक ऋषियोंको यह चिन्ता हुई कि पूर्व साहित्यका जो भी हिस्सा शेष है उसका संकलन हो जाना चाहिये । इस चिन्ताका पता उस कथा से लगता है जो घवला प्रथम पुस्तकमें निबद्ध है । श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित अंग साहित्यके संकलन के लिये जिन तीन वाचनाओंका उल्लेख मिलता है वे भी इसी बातकी द्योतक हैं । वर्तमान मूल कर्मसाहित्य और उसकी संकलनका आधार - अबतक जो भी प्रमाण मिले हैं उनके आधारसे यह कहा जा सकता है कि कर्मसाहित्य व जीवसाहित्यके संकलनमें श्रुतधर ऋषियोंकी उक्त चिन्ता ही विशेष सहायक हुई थी । वर्तमानमें दोनों परम्पराओंमें जो भी कर्मविषयक मूल साहित्य उपलब्ध होता है। वह इसीका फल है । आग्रयणीय पूर्वकी पांचवीं वस्तुके चौथे प्राभृतके आधारसे षट्खण्डागम, कर्मप्रकृति, शतक और सप्ततिका इन ग्रन्थोंका संकलन हुआ था और ज्ञानप्रवाद पूर्वकी दसवीं वस्तुके तीसरे प्राभृतके आधारसे कषायप्राभृतका संकलन हुआ था । इनमेंसे कर्मप्रकृति यह ग्रन्थ श्वेताम्बर परम्परामें माना जाता है। कषायप्राभृत और षट्खण्डागम ये दो दिगम्बर परम्परा में माने जाते हैं । तथा कुछ पाठ भेदके साथ शतक और सप्ततिका ये दो ग्रन्थ दोनों परम्पराओंमें माने जाते हैं । जैसे इस साहित्यको पूर्व साहित्यका उत्तराधिकार प्राप्त है वैसे ही यह शेष कर्मसाहित्यका आदि स्रोत भी है । आगे टीका, टिप्पणी व संकलन रूप जितना भी कर्मसाहित्य लिखा गया है उसका जनक उपर्युक्त साहित्य ही है । मूल साहित्य में सप्ततिकाका स्थान जैसा कि हम पहले बतला आये हैं कि वर्तमान में ऐसे पाँच ग्रन्थ माने गये हैं जिन्हें कर्मविषयक मूल साहित्य कहा जा सकता है। उनमें एक ग्रन्थ सप्ततिका भी है । सप्ततिका अनेक स्थलोंपर मतभेदोंका निर्देश किया है । एक मतभेद' उदयविकल्प और पदवृन्दोंकी संख्या बतलाते समय आया है और दूसरा मतभेद अयोगिकेवली गुणस्थान में नामकर्मकी कितनी प्रकृतियोंका सत्त्व होता है इस सिलसिले में आया है । इससे ज्ञात होता है कि जब कर्मविषयक अनेक मतान्तर प्रचलित हो गये थे तब इसकी रचना हुई होगी । - तथापि इसकी प्रथम गाथामें इसे दृष्टिवाद करते हुए सभी टीकाकार अग्रायणीय पूर्वकी पाँचवीं इसकी मूल साहित्य में परिगणना की गई है । सप्ततिकाकी थोड़ी सी गाथाओं में कर्मसाहित्यका समग्र निचोड़ भर दिया है। इस हिसाब से जब हम विचार करते हैं तो इसे मूल साहित्य कहनेके लिए ही जी चाहता है । २. सप्ततिका व उसकी टीकाएँ अंगकी एक बूँदके समान बतलाया है और इसकी टीका वस्तुके चौथे प्राभृतसे इसकी उत्पत्ति मानते हैं, इसलिए Jain Education International नाम -- प्रस्तुत ग्रन्थका नाम सप्ततिका है । गाथाओं या श्लोकोंकी संख्या के आधारसे ग्रन्थका नाम रखने की परिपाटी प्राचीन कालसे चली आ रही | सप्ततिका यह नाम इसी आधारसे रखा गया जान पड़ता है । इसे षष्ठ कर्मग्रन्थ भी कहते हैं। इसका कारण यह है कि वर्तमानमें कर्म ग्रन्थोंको जिस क्रमसे गणना की जाती है उसके अनुसार इसका छठा नम्बर लगता है । १. देखो गाथा १९-२० व उनकी टीका । २, देखो गाथा ६६-६७ पृ० ६८ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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