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________________ चतुर्थ खण्ड : ४८९ गाथासंख्या --- प्रस्तुत ग्रन्थका सप्ततिका यह नाम यद्यपि गाथाओंकी संख्याके आधारसे रखा गया है तथापि इसकी गाथाओंकी संख्याके विषय में मतभेद है । अबतक हमारे देखने में जितने संस्करण आये हैं उन सबमें इसकी गाथाओंकी अलग-अलग संख्या दी गई है । श्री जैन श्रेयस्कर मण्डलकी ओरसे इसका एक संस्करण म्हेसाणासे प्रकाशित हुआ है, उसमें इसकी गाथाओंकी संख्या ९१ दी गई है । प्रकरण रत्नाकर चौथा भाग बम्बई से प्रकाशित हुआ है, उसमें इसकी गाथाओंकी संख्या ९४ दी गई | आचार्य मलयगिरिकी टीकाके साथ इसका एक संस्करण श्री आत्मानन्द जैन ग्रन्थमालासे प्रकाशित हुआ है, उसमें इसकी गाथाओंकी संग ७२ दी गई है । और चूर्णिके साथ इसका एक संस्करण श्री ज्ञानमन्दिर डभोईसे प्रकाशित हुआ है, उसमें इसकी गाथाओंकी संख्या' ७१ दी गई है । इसके अतिरिक्त ज्ञानमन्दिर डभोईसे प्रकाशित होने वाले संस्करण में जिन तीन मूल गाथा प्रतियोंका परिचय दिया गया है उनके आधारसे इसकी गाथाओंकी संख्या ९१, ९२ और ९३ प्राप्त होती है । अब देखना यह है कि इसकी गाथाओंकी संख्यांके विषय में इतना मतभेद क्यों है । छानबीन करने के बाद मुझे इसके निम्नलिखित तीन कारण ज्ञात हुए हैं । १. लेखकों या गुजराती टीकाकारों द्वारा अन्तर्भान गाथाओंका मूल गाथा रूपसे स्वीकार किया जाना । २. दिगम्बर परम्परामें प्रचलित सप्ततिकाकी कतिपय गाथाओं का मूल गाथारूपसे स्वीकार किया जाना । ३. प्रकरणोपयोगी अन्य गाथाओं का मूल गाथारूपसे स्वीकार किया जाना । जिन प्रतियों में गाथाओं की संख्या ९१, ९२, ९३ या ९४ दी है उनमें दस अन्तर्भाष्य गाथाएँ, दिगम्बर परम्परामें प्रचलित सप्ततिकाकी पाँच गाथाएँ और शेष प्रकरणसम्बन्धी अन्य गाथाएँ सम्मिलित हो गई हैं । इससे गाथाओंकी संख्या अधिक बढ़ गई है । यदि इन गाथाओंको अलग कर दिया जाता है तो इसकी कुल ७२ मूल गाथाएँ रह जाती हैं । इन पर चूर्णि और मलयगिरि आचार्यकी संस्कृत टीका ये दोनों पाई जाती हैं । अतः इस आघारसे मूल गाथाओंकी संख्या ७२ निर्विवाद रूपसे निश्चित होती है। मुनि कल्याणविजयजीने आत्मानन्द जैन ग्रन्थमालासे प्रकाशित होनेवाले ८६ वें रत्न 'शतक और सप्ततिकाकी' प्रस्तावना में इसी आधारको प्रमाण माना है । किन्तु मुक्ताबाई ज्ञानमन्दिर डभोईसे चूर्णिसहित जो सप्ततिका प्रकाशित हुई है उसमें उसके सम्पादक पं. अमृतलालजीने 'चउ पणवीसा सोलस' इत्यादि २५ नम्बरवाली गाथाको मूल गाथा न मानकर सप्ततिकाकी कुल ७१ गाथाएँ मानी हैं उनका इस सम्बन्धमें यह वक्तव्य है 'परन्तु अमोए आ प्रकाशनमां सित्तरीनी ७१ गाथाओज मूल तरीके मानी छे । तेनुं कारण ए छे के उपर्युक्त कर्मग्रन्थ द्वितीय विभागमां 'चउ पणुवीसा सोलस' (गा - २५) ए गाथाने तेना सम्पादक श्री ए मूल गाथा तरीके मानी लीधी छे परन्तु ये गाथाने चूर्णिकारे 'पाढंतर' लखीने पाठान्तर गाथा तरीके निर्देशी छे; एटले 'चउ पणुवीसा सोलस' गाथा मूलनी नथी ए माटे चूर्णिकारनो सचोट पुरावो होवाथी सित्तरी प्रकरणनी १. यह चूर्णि ७१ गाथाओं पर न होकर ८९ गाथाओं पर है । इससे चूर्णिकार के मतसे सप्ततिकाकी गाथाओंकी संख्या ८९ सिद्ध होती है । इसमें अन्तर्भाष्य गाथाएँ भी सम्मिलित हैं । २. देखो प्रस्तावना पष्ठ १२ व १३ । ६२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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