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________________ सप्ततिका प्रकरण : एक विवेचनात्मक अध्ययन परिभाषा - जैनदर्शन में पुद्गल द्रव्यकी अनेक प्रकारको वर्गणाएँ बतलाई हैं । इनमेंसे औदारिक शरीर वर्गणा, वैक्रिय शरीर वर्गणा, आहारक शरीर वर्गणा, तैजस वर्गणा, भाषा वर्गणा, श्वासोच्छ्वास वर्गणा, मनोवर्गणा और कार्मण वर्गणा इन वर्गणाओं को संसारी जीवद्वारा ग्राह्य माना गया है । संसारी जीव इन वर्गणाओंको ग्रहण करके विभिन्न शरीर वचन और मन आदिकी रचना करता है । इनमें से प्रारम्भकी तीन वर्गणाओंसे औदारिक, वैक्रिय और आहारक इन तीन शरीरोंकी रचना होती है । तैजस वर्गणाओंसे तैजस शरीर बनता है । भाषा वर्गणाएँ विविध प्रकारके शब्दोंका आकार धारणा करती हैं । श्वासोच्छ्वास वर्गणा श्वासोच्छ्वासके काम आती है । हिताहित के विचार में साहाय्य करनेवाले द्रव्यमनकी रचना मनोवर्गणाओंसे होती है । और ज्ञानावरणादि आठ प्रकार के कर्म कार्मण वर्गणाओंसे बनते हैं । इन सबमें कर्म संसारका मूल कारण माना गया है । वैदिक साहित्यमें जिसका लिंग शरीररूपसे उल्लेख किया गया है वह ही जैनदर्शनमें कर्मशब्द द्वारा पुकारा जाता है । वैसे तो संसारी जीवकी प्रतिक्षण जो राग, द्वेष आदि रूप परिणति हो रही है उसकी कर्म संज्ञा है । कर्मका अर्थ किया है, यह अर्थ जीवकी राग-द्वेषरूप परिणतिमें अच्छी तरह घटित होता है । इसलिए इसे ही कर्म कहा गया है, क्योंकि अपनी इस परिणतिके कारण ही जीवकी दीन दशा हो रही है । पर आत्माकी इस परिणतिके कारण कार्मण नामवाले पुद्गलरज आकर आत्मासे सम्बद्ध हो जाते हैं और कालान्तर में वे वैसी परिणति के होने में निमित्ति होते हैं, इसलिए इन्हें भी कर्म कहा जाता है । इन ज्ञानावरणादि कर्मो के साथ संसारीजीवका एक क्षेत्रावगाही सम्बन्ध है जिससे जीव और कर्मका विवेक करना कठिन हो गया है । लक्षणभेदसे ही ये जाने जा सकते हैं । जीवका लक्षण चेतना अर्थात् ज्ञान दर्शन है और कर्मका लक्षण जड़ अचेतन है । इस प्रकारके कर्मका जिस साहित्य में सांगोपांग विचार किया गया उसे कर्मसाहित्य कहते हैं । अन्य आस्तिक दर्शनोंने भी कर्मके अस्तित्वको स्वीकार किया है । किन्तु उनकी अपेक्षा जैन दर्शनमें इस विषयका विस्तृत और स्वतन्त्र वर्णन पाया जाता है । इस विषयके वर्णनने जैन साहित्य के बहुत बड़े भागको रोक रखा है । मूल कर्म साहित्य - भगवान महावीरके उपदेशोंका संकलन करते समय कर्मसाहित्यकी स्वतंत्र संकलन की गई थी । गणधरोंने ( पट्टशिष्योंने) समस्त उपदेशोंको बारह अङ्गों में विभाजित किया था । इनमें से दृष्टिवाद नामक बारहवाँ अङ्ग बहुत विशाल था । इसके परिकर्म, सूत्र प्रथमानुयोग, पूर्वंगत और चूलिका ये पाँच भेद थे। इनमेंसे पूर्वगत के चौदह भेद थे, जिनमें से आठवें भेदका नाम कर्मप्रवाद था । कर्मविषयक साहित्यका इसी में संकलन किया गया था । इसके सिवा अग्रायणीय और ज्ञानप्रवाद इन दो पूर्वोमें भी प्रसंगसे कर्मका वर्णन किया गया था । पूर्वगत कर्म साहित्य ह्रासका इतिहास - किन्तु धीरे-धीरे कालदोषसे पूर्व साहित्य नष्ट होने लगा । भगवान् महावीरके मोक्ष जानेके बाद जो अनुबद्ध केवली और श्रुतकेवली हुए उन तक अंग-पूर्वसम्बन्धी १. गोम्मटसार जीवकाण्डमें २३ प्रकारको वर्गणाएँ बतलाई हैं । उनमेंसे आहार वर्गणा, मनोवर्गणा और कार्मण वर्गणा ये संसारी जीवद्वारा प्राह्य मानी गई हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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