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________________ जैनसिद्धान्तदर्पण : एक अनुचिन्तन गुरु श्री पं० गोपालदासजी वरैया श्रुतधरोंकी उस शृंखलाकी कड़ी हैं, जिसमें कुन्दकुन्द, समन्तभद्र, अकलंक और प्रभाचन्द्र जैसे आगमानुसारी आचार्योंकी गणना की जाती है और जिन आचार्योंकी अमर लेखनीका स्पर्श पाकर श्रुतदेवताका कार्य संवर्द्धन हुआ है । गुरुजी विचारक होनेके साथ शास्त्रीय विद्वान भी थे; उन्होंने जहाँ सुशीला उपन्यास जैसा रसमय कथा ग्रन्थ लिखा है, वहाँ जैनसिद्धान्तदर्पण जैसी गहन शास्त्रीय, पाण्डित्यपूर्ण रचना भी लिखी। सार्वधर्म, जैन जागरफी प्रभृति अनेक निबन्धों के साथ (१) जैनसिद्धान्तदर्पण (२) जैनसिद्धान्तप्रवेशिका और (३) सुशीला उपन्यास इन तीन ग्रन्थोंकी रचना भी उन्होंने की है। इनमें प्रथम दो रचनाएँ सैद्धान्तिक हैं और तीसरी कथा कृति । प्रस्तुत निबन्धमें प्रथम ग्रन्थका अनुचिन्तन उपस्थित किया जा रहा है । प्रास्ताविक जैनसिद्धान्तदर्पणमें सिद्धान्त और न्यायके महत्त्वपूर्ण विषयोंका प्रतिपादन किया गया है । यह गुरुजीकी सर्वप्रथम कृति है, पर भाषा और प्रतिपादन शैलीमें इतनी प्रौढता समाविष्ट है, जिससे इसे प्रथम रचना स्वीकार करने में विप्रतिपत्ति प्रतीत होती है। इस ग्रन्थको गुरुजीने 'जैनमित्र' में क्रमश. प्रकाशित करना आरम्भ किया था। पश्चात् जैनमित्र कार्यालयमें अपने पाठकोंको उपहार स्वरूप वितरित करनेके लिये 'जैनसिद्धान्तदर्पण-पूर्वाध' के नामसे इसे प्रकाशित किया । कुछ वर्षोंके पश्चात मनि श्री अनन्तकीति दि० जैन ग्रन्थमाला बम्बईको ओरसे वीर निर्वाण संवत् २४५४, जनवरी सन् १९२८ ई० में इसका संशोधित और परिवर्धित संस्करण प्रकाशित हआ, जो अनुचिन्तनके हेतु हमारे समक्ष है। इस संस्करणमें गरुजीकी लिखी हई प्रस्तावना भी है। उसमें बताया है ___'यद्यपि जैनसिद्धान्तका रहस्य प्रकट करनेवाले बड़े-बड़े श्री कुन्दकुन्दाचार्य समान महानाचायोंके बनाये हुए अब भी अनेक ग्रन्थ मौजूद है, पर उनका असली ज्ञान प्राप्त करना असम्भव नहीं, तो दुस्साध्य अवश्य है । इसलिए जिस तरह सुचतुर लोग जहाँ पर कि सूर्यका प्रकाश नहीं पहुँच सकता, वहाँपर भी बड़े-बड़े चमकीले द पदार्थोके द्वारा रोशनी पहुँचा कर अपना काम चलाते हैं, उसी तरह जटिल जैन सिद्धान्तोंके पूर्ण प्रकाशको किसी तरह इन जीवोंके हृदय-मंदिरमें पहुँचानेके लिए जैनसिद्धान्तदर्पणकी आवश्यकता है। शायद आपने ऐसे पहलदार दर्पण (शैरवानि) भी देखे होंगे, जिनके द्वारा उलट फेरकर देखनेसे भिन्न-भिन्न पदार्थोंका प्रतिभास होता है । उसी तरह इस 'जैनसिद्धान्तदर्पण'के भिन्न-भिन्न अधिकारों द्वारा सिद्धान्त विषयक भिन्न-भिन्न पदार्थोंका ज्ञान प्राप्त किया जा सकेगा।' गुरुजीके पूर्वोक्त कथनसे तत्त्वज्ञानकी जानकारीके लिए उक्त ग्रन्थकी उपयोगिता स्पष्ट है । जिसे संस्कृत प्राकृत, अपभ्रंश आदि प्राचीन भारतीय भाषाओंका सम्यक् ज्ञान नहीं है, ऐसा हिन्दी भाषाका ज्ञाता पाठक भी बड़े-बड़े सैद्धान्तिक विषयोंका ज्ञान इस ग्रन्थके अध्ययनसे प्राप्त कर सकता है। जैनसिद्धान्तोंकी जानकारी इस ग्रन्थसे सहज में प्राप्त की जा सकती है । प्रस्तुत संस्करणमें विषय-सूचीके पूर्व गुरुजीका निवेदन मुद्रित है, जिसमें इस कृतिके प्रणयनका संक्षिप्त इतिहास अंकित किया गया है। गुरुजीने अपने उक्त वक्तव्यमें बताया है कि जैनमित्रकार्यालयसे ग्रन्थ संशोधनपरिवर्धनके हेतु पत्र मिला, जिसमें लिखा था Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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