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________________ चतुर्थ खण्ड : ४७१ 'जैन सिद्धान्तदर्पण द्वितीय संस्करणको ( दूसरे बार छपनेकी) अत्यन्त आवश्यकता है, इसलिए आप इसमें हीनाधिक करके और जिन बातोंकी इसमें त्रुटि रह गई, उनको पूर्ण करके इसको शीघ्र ही भेज दीजिएगा।' इसलिए अब इसमें आकाशद्रव्यके निरूपणमें सृष्टिकर्तुत्वमीमांसा और भूगोलमीमांसा की गई है और कालद्रव्यका विशेषरूपसे वर्णन किया गया है। तथा और भी जहाँ कहीं हीनाधिकता करनी थी, कर दी गई हैं । अब भी जो कुछ इसमें त्रुटि रह गई हो, उसके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ । इस संस्करण में मुझको मेरे शिष्य महरौनी (झाँसी) निवासी पण्डित बंशीधरने बहुत सहायता दी है जिसका मुझे अत्यन्त हर्ष है ।' गुरुजीके उक्त वक्तव्यसे स्पष्ट है कि यह ग्रन्थ गुरुजीकी आद्य रचना है और इसे सर्वाङ्गपूर्ण बनाने के लिए उन्होंने पर्याप्त श्रम किया है । प्रतिपाद्य विषयका समीक्षात्मक परिचय प्रस्तुत ग्रन्थ आठ अधिकारोंमें विभक्त है । प्रत्येक अधिकारका नामकरण निरूपित विषयके आधारपर किया गया है । लेखकने जिस अधिकार में जिस विषयका प्रतिपादन किया है, उस विषयके अध्ययनसे तद्विषयक जिज्ञासा शान्त हो जाती है । अधिकारोंके नाम निम्नलिखित हैं : (१) लक्षण प्रमाण-नय-निक्षेपनिरूपण, (२) द्रव्यसामान्यनिरूपण, ( : ) अजीवद्रव्यनिरूपण, (४) पुद्गलद्रव्यनिरूपण, (५) धर्म और अधर्मद्रव्यनिरूपण, (६) आकाशद्रव्यनिरूपण, (७) कालद्रव्यनिरूपण और (८) सृष्टिकर्तृत्वमीमांसा । प्रथम अधिकार में लक्षण, प्रमाण, नय और निक्षेपकी विस्तारपूर्वक ( पृ० १ - ३८ तक) मीमांसाकी गयी है । पदार्थो के विशेष स्वरूपका विचार उक्त चारों विषयोंको ठीक तरहसे जाने बिना सम्भव नहीं है । अतः गुरुजीने सर्वप्रथम आधारभूत सिद्धान्तों का विवेचन किया है। धवलाटीका के निम्न पद्यसे भी उक्त कथनको सिद्धि होती है— प्रमाण -नय- निक्षेपर्योऽर्थो नाभिसमीक्ष्यते । युक्तं चायुक्तवद्भाति तस्यायुक्तं च युक्तवत् ॥ - धवला० पु० १ पृ० १६ जिस पदार्थका प्रमाण, नय और निक्षेपके द्वारा ठीक तरहसे विचार नहीं किया जाता, वह कभी युक्त - तर्कसंगत होते हुए भी अयुक्त-सा प्रतीत होता है और कभी अयुक्त होते हुए भी युक्त-सा प्रतीत होता है । स्पष्ट है कि किसी भी पदार्थकी समीक्षा ( मीमांसा) करते समय वह किस निक्षेपका विषय यह जानकर ही प्रमाण और नयदृष्टिसे उसका निर्णय करना चाहिए । पदार्थका विवेचन करते समय उसके लक्षणकी अनुवृत्ति तो हो ही जाती है, अतएव किसी भी पदार्थ के निर्णय में उक्त चारों उपयोगी हैं । इसी तथ्यको ध्यान में रखकर गुरुजीने अपने इस प्रथम अधिकारमें लक्षणादि चारों विषयोंका निरूपण किया है । प्रतिपादन की यह शास्त्रीय शैली पाठक और विचारक दोनोंके लिए ही हृदयको आह्लादित करनेवाली है । यहाँ प्रकरण संगत होनेसे यह निर्देश कर देना उपयुक्त प्रतीत होता है कि मूल आगम परम्परामें किसी भी विषयकी प्ररूपणा के पूर्व आरम्भमें उस विषयका वाचक शब्द कितने अर्थोंमें पाया जाता है, निक्षेपविधिसें प्ररूपण करनेपर कौन निक्षेपार्थ किस नयका विषय है, यह दिखलाकर प्रकृत निक्षेपार्थकी प्ररूपणाकी जाती रही है ।" इससे अध्येता उस ग्रन्थ या प्रकरणके अध्ययनके पूर्व निम्न तथ्योंको स्पष्ट रूपसे जान लेता है । १. धवलाटीका पु० १३ पृ० ३-४, पृ० ३८ तथा पृ० १९८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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