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________________ प्रथम खण्ड : ३९ विचक्षण प्रतिभावान् •सौ० पोसेरिया चन्द्रिका जैन, इन्दौर श्रद्धेय सर्वमान्य पं० दादा फलचन्द्रजी सारे भारतके जैन समाज व अन्य समाजके जाने-माने मूर्धन्य विद्वान् हैं। जो उनके सम्पर्कमें आया उनकी वाणी और लेखनीसे प्रभावित ही हुआ। आपके यथार्थ सूक्ष्म गूढ़ तात्त्विक ज्ञानकी श्रेष्ठता अद्वितीय है। आप करणानुयोगके तो प्रकाण्ड विद्वान् है हों। वह इतिहासकी अविस्मरणीय घटना है। बीसवीं सदीमें जब आध्यात्मिक एक महापुरुष कानजी स्वामीका आविर्भाव हुआ। यह स्वर्ण युग आया था टोडरमल बनारसीदासके बाद, पुर्वाचार्योंकी तत्त्वज्ञान तरंगणी उछली और फिर सारे देशमें यहाँ तक विदेशमें भी वह अमृतधारा बह चली। तो सारे देशमें खलबल मची सब दौड़े-भागे पश्चिममें, अरे यह बात हमने सुनी ही नहीं अथवा इन्हें सुनाई नहीं गई, सुनाई ही गई नहीं। किन्हीं विद्वानों तक चर्चाका विषय रहती थी जब समयसारका सार खुला तो पाखंडोंके गढ़ ढहने लगे । मुनि त्यागी पंडितोंकी पोप लीला खुलने लगी। कई चोंके, चमके, गरजे, पर एक पं० फूलचन्द्र ही खरे उतरे जो मेरुवत् स्थिर रहे । और आज ५० वर्षोंके बाद भी शुद्धमति अचल हैं। इसका सबल प्रमाण है उनकी एक खानिया तत्त्व चर्चा जिसने प्रत्यक्ष देखा है अथवा पढ़ा है। जिन्होंने ६० पंडितोंके साथ तत्त्व चर्चा कर सफल निर्णयात्मक समाधान कर चकित किया है लगता है उनके ऊपर वाग्देवी जिनवाणी माताने वरदहस्त किया हो। जहाँ बड़े-बड़े नामी गरामी दिग्गज विद्वान् गंगामें गंगादास और जमनामें जमनादास बनते देखे जाते हैं । वहाँ पं० फूलचन्द्रने किसी भी भय, आशा, स्नेह, मान मर्यादाका विचार किये बिना ही अपना अमूल्य श्रद्धा मस्तक नहीं झुकाया । धार्मिक जगत्की कौनसी समस्या न हो, जो दादाको न छुई हो। धवलादि ग्रन्थों के अनुवादके अलावा अनेकों ग्रन्थोंकी टीकायें, प्रस्तावनायें, सम्पादन, संशोधन कार्य किया है । जहाँ पूर्वाचार्योंकी परम्परामें शुद्धाम्नायके अनुकूल सौ टंच है । . कानजी स्वामीको प्रभावित युगमें जो मूल सिद्धान्तोंमें ऊहापोहके घनघोर बादलोंमें मतभेद उभरा तो आपने जैनतत्त्वमीमांसा लिखकर तत्त्व जिज्ञातुओंपर बड़ा उपकार किया है । पर जिनके चक्षुओंपर पक्ष मोहका ऐनक चढ़ा है वे वस्तु सही होते भी सही नहीं देख पाते । यह तो उनकी स्वयंकी भूल है । दादा जी और नयी पीढ़ीके तत्त्व प्रचारके माध्यमोंमें भले ही भिन्नता भासित हो, परन्तु मौलिक सिद्धान्तोंकी स्वच्छता और प्रखरतामें इंच मात्र भी विरोध नहीं है। उनके चेहरेमें भोलापन, वाणीमें सरलता, जीवनमें सादगी, तत्त्व ज्ञानकी गम्भीरताको लिए सदा-सदा काल मुमुक्षुओंमें गुरुपनेकी गरिमासे प्रतिष्ठित रहेंगे। जो कर्मोदय जनित आधि, व्याधि, उपाधिमें सदा धैर्यवान समताशील रहे । वे चिरायु हों। सब भगवान् वीतरागकी वाणीको समझ कर हमारा चिर आराध्य जो अलौकिक महान् दुर्लभ निधि सम्यग्दर्शन है । उसका लाभ हो इन्हें । उनके द्वारा जो जिन शासनकी सेवा हुई है । उसका समाज सदा ऋणी रहेगा। पंडितजीका ऋण हलका करना है तो उनके द्वारा अनुवादित धवगदि ग्रन्थोंको स्वाध्याय द्वारा जन जनकी विषय वस्तु बनाया जाय । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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