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________________ चतुर्थ खण्ड : ४२१ (२) संज्वलन क्रोधादिका जघन्य प्रदेशसक्रम अन्तिम समयप्रबद्धका अन्यत्र संक्रम करते हुए क्षपकके अन्तिम समयमें सर्वसंक्रमसे होता है । यह कर्मप्रकृति चूर्णिकारका मत है और यही मत श्वेताम्बर पंचसंग्रहका भो है । यथा पंसंजलणतिगाणं जहण्णजोगिस्स खवगसेढीए। सगचरिमसमयबद्धं जं छुभइ सगंतिमे समए ॥११९।। (२) प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टिके, सम्यक्त्वकी प्राप्तिके समय मिथ्यात्वके तीन पुंज होने पर एक आवलि काल तक सम्यग्मिथ्यात्वका सम्यक्त्वमें संक्रम नहीं होता यह कर्मप्रकृति चूर्णिकारका मत है। पञ्चसंग्रह प्रकृति संक्रम गाथा ११ की मलयगिरि टीकासे भी इसी मतको पुष्टि होती है । यथा तस्यैव चौपशमिकसम्यग्दृष्टी विंशतिसत्कर्मणः आवलिकाया अभ्यन्तरे वर्तमानस्य सम्यग्मिथ्यात्वं सम्यक्त्वे न संक्रामति । प्रकृति सं० पत्र १० (४) पुरुषवेदकी पतद्ग्रहता कब नष्ट हो जाती है इस विषयमें कर्मप्रकृति चुर्णिकारका जो मत है उसी मतका निर्देश पंचसंग्रहणकी मलयगिरि टीकामें दृष्टिगोचर होता है । यथा पुरुषवेदस्य प्रथमस्थितौ द्वद्यवालिकाशेषायां प्रागुक्तस्वरूपं आगालो व्यवच्छिद्यते, उदोरणा तु भवति, तस्मादेव समयादरभ्य षण्णां नोकषायाणां सत्कं दलिकं पुरुषवेदे न संक्रमयति । -पंच० चा० मो० ड० पत्र १९१ श्वे० पंचसंग्रहके ये उद्धरण हैं जो मात्र कर्मप्रकृतिचूर्णिका पूरी तरह अनुसरण करते हैं, किन्तु कषायप्राभूत और उसकी चूणिका अनुसरण नहीं करते। इससे स्पष्ट है कि कषायप्राभृत और उसकी चूर्णिकाको श्वेताम्बर आचार्योंने कभी भी अपनी परम्पराकी रचना रूपमें स्वीकार नहीं किया। यहाँ हमारे इस बातके निर्देश करनेका एक खास कारण यह भी है कि मलयगिरिके मतानुसार जिन पाँच ग्रन्थोंका पंचसंग्रहमें समावेश किया गया है उनमें एक कषायप्राभूत भी है । यदि चन्द्रषिमहत्तरको पंचसंग्रह श्वेताम्बर आचार्यकी कृति रूपमें स्वीकार होता तो उन्होंने जैसे कर्मप्रकृति और चूणिको अपनी रचनामें प्रमाण रूपसे स्वीकार किया है वैसे ही वे कषायप्राभूत और चूर्णिको भी प्रमाण रूपमें स्वीकार करते । और ऐसी अवस्थामें जिन-जिन स्थलोंपर उन्हें कषायप्राभूत और कर्मप्रकृतिमें पदार्थ भेद दृष्टिगोचर होता उसका उल्लेख वे अवश्य करते। किन्तु उन्होंने ऐसा न कर मात्र कर्मप्रकृति और उसकी चूर्णिका अनुसरण किया है। इससे स्पष्ट विदित होता है कि चन्द्रषिमहत्तर कषायप्राभूत और उसकी चूर्णिको श्वेताम्बर परम्पराका नहीं स्वीकार करते रहे। यहाँ हमने मात्र उन्हीं पाठोंको ध्यानमें रखकर चर्चाकी है जिनका निर्देश उक्त प्रस्तावनाकारने किया है । इनके सिवाय और भी ऐसे पाठ है जो कर्मप्रकृति और पंचसंग्रहमें एक ही प्रकारकी प्ररूपणा करते हैं । परन्तु कषायप्राभूत चूर्णिमें उनसे भिन्न प्रकारकी प्ररूपणा दृष्टिगोचर होती है । उसके लिए हम एक उदाहरण उद्वेलना प्रकृतियोंका देना इष्ट मानेंगे । यथा: कषायप्राभुतचणिमें मोहनीयकी मात्र दो प्रकृतियाँ उद्वेलना प्रकृतियाँ स्वीकारकी गई हैं-सम्यकप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति । किन्तु पंचसंग्रह और कर्मप्रकृतिमें मोहनीयकी उद्वेलना प्रकृतियोंकी संख्या २७ है । यथा दर्शनमोहनीयकी ३, लोभसंज्वलनको छोड़कर १५ कषाय और ९ नोकषाय । कषायप्राभूतचणिका पाठः ५८ सम्मामिच्छत्तस्य जहण्णढ़िदिविहत्ति कस्स ? चरिमसमयउव्वेल्लमाणस्स । ( पृ० १०१ ) ३६ एवं चेव सम्मत्तस्स वि। (पृ० १९०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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