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________________ ४२० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ अब दिगम्बर परम्पराके ग्रन्थों पर दृष्टि डालिए "विदियादी पुण पढमा संखेज्जगुणा भवे पदसग्गे । विदियादो पुण तदिया कमेण सेसा विसेसाहिया ।।१७०।।' क० प्रा० मुल 'ताधे चेव लोभस्स विदियकिट्टीदो च तदियकिट्टीदो च पदेसग्गमोकड्डियूण सुहुमसांपराइयकिट्टीओणाम करेदि । -कषाय प्राभूत चूणि मूल पृ० ८६२ । लोभस्स जहणियाए किट्टीए पदेसगं बहुअं दिज्जदि। -षटखण्डागम धवला पु० ६ पृ० ३७९ (आ) श्वेताम्बर आचार्यों द्वारा लिखे गये कर्म-प्रकृति और पंच संग्रहमें 'अवरित'के लिए 'अजय' या 'अजत' शब्दका प्रयोग हुआ है, किन्तु दिगम्बर आचार्यों द्वारा लिखे गये कषायप्राभत और षट्खण्डागममें यह शब्द इस अर्थमें दृष्टिगोचर नहीं होता। इनके लिए कर्मप्रकृति (श्वे०) पर दृष्टिपात कीजिए वेयगसम्मद्दिट्ठी चरित्तमोहुवसमाइ चिटुंतो । अजउ देशजई वा विरतो व विसोहिअद्धाए । उपश० करण ।।२७॥ इसीप्रकार पञ्चसंग्रहमें भी इस शब्दका इसी अर्थमें प्रयोग हआ है। इनके अतिरिक्त 'वरिसवर' 'उव्वलण' आदि शब्द हैं जो श्वेताम्बर परंपराके कार्मिक ग्रंथोंमें ही दृष्टिगोचर होते है, दिगम्बर परम्पराके ग्रंथोंमें नहीं। ये कतिपय उदाहरण हैं। इनसे स्पष्ट ज्ञात होता है कि कषायप्राभूत और उसकी चूणि ये दोनों श्वेताम्बर आचार्योंकी कृति न होकर दिगम्बर आचार्योंकी ही अमर कृति है। (२) कषायप्राभूत और उसकी चूणिको श्वेताम्बर आचार्योंकी कृति सिद्ध करनेके लिए उनका दूसरा तर्क है कि दिगम्बर आचार्यकृत ग्रन्थों पर श्वेताम्बर आचार्योंकी टीकाएँ और श्वेताम्बर आचार्यकृत ग्रन्थों पर दिगम्बर आचार्योकी टीकायें हैं आदि । उसी प्रकार कषायप्राभृत मुल तथा उसकी चूणि पर दि० आचार्यों की टीका होने मात्रसे उन्हें दिगम्बर आचार्योंकी कृति रूपसे निश्चित नहीं किया जा सकता। (प्रस्तावना ५० ३०) .... यह उनका तर्क है । किन्तु श्वेताम्बर आचार्यों द्वारा रचित कर्मग्रन्थोंसे कषायप्राभृत और उसकी चर्णिमें वर्णित पदार्थ भेदको स्पष्ट रूपसे जानते हुए भी वे ऐसा असत् विधान कैसे करते हैं इसका किसीको भी आश्चर्य हुए बिना नहीं रहेगा। 'मुद्रित कषायप्राभूत चुणिनी प्रस्तावनामां रजु थयेलो मान्यतानी समीक्षा' इस उपशीर्षकके अन्तर्गत उन्होंने पदार्थ भेदके कतिपय उदाहरण स्वयं उपस्थित किये हैं। इन उदाहरणोंको उपस्थित करते हुए उन्होंने कषायप्राभूतके साथ कषाप्राभूतणि कर्मप्रकृतिणि इन ग्रन्थोंके उद्धरण दिये हैं। किन्तु श्वेताम्बर पंचसंग्रहको दृष्टि पथमें लेने पर विदित होता है कि उक्त ग्रन्थ भी कषायप्राभूत चूर्णिका अनुसरण न कर कर्मप्रकृति चूणि का ही अनुसरण करता है । यथा (१) मिश्रगुणस्थानमें सम्यक्त्व प्रकृति भजनीय है इस मतका प्रतिपादन करने वाली पञ्चसंग्रहके सत्कर्मस्वामित्वकी गाथा इस प्रकार है-सासयणमि नियमा सम्मं भज्जं दससु संतं ॥१३५॥ कर्मप्रकृति चुणिसे भी इसी अभिप्रायकी पुष्टि होती है। (चणि सत्ताधिकार पृ० ३५) [प्रदेशसंक्रम प० ९४] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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