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________________ ४२२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ पंचसंग्रह-प्रदेशसंक्रमका पाठ एवं उव्वलणासंकमेण नासेइ अविरओहारं । सम्मोऽमिच्छमीसे सछत्तीसऽनियठ्ठि जा माया ।।७४।। इसके सिवाय पञ्चसंग्रहके प्रदेशसंक्रमप्रकरणमें एक यह गाथा भी आई है जिससे भी उक्त विषयकी पुष्टि होती है। सम्म-मीसई मिच्छो सुरदुगवेउव्विछक्कमेगिंदी। सुहुमतसुच्चमणुदुगं अंतमुहुत्तेण अणियट्टी ।।७५।। इसमें बतलाया है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी मिथ्यादृष्टि जीव उद्वेलना करता है, पंचानवे प्रकृतियोंकी सत्तावाला एकेन्द्रिय जीव देवद्विकको उद्वेलना करता है, उसके बाद वही जीव वैक्रियकषट्की उद्वेलना करता है, सूक्ष्म त्रस अग्निकायिक और वायुकायिक जीव क्रमसे उच्चगोत्र और मनुष्यद्विककी उद्वेलना करता है तथा अनिवृत्तिबादर जीव एक अन्तर्मुहूर्तमें पूर्वोक्त ३६ प्रकृितियोंकी उद्वेलना करता है। यहाँ पंचसंग्रह निरूपित पाठका उल्लेख किया है कर्मप्रकृतिकी प्ररूपणा इससे भिन्न नहीं है। उदाहरणार्थ जिस प्रकार पञ्चसंग्रहमें अनन्तानबन्धीचतष्ककी परिगणना उद्वेलना प्रकृतियों में की गई है उसी प्रकार कर्मप्रकृतिमें भी उन्हें उद्वेलना प्रकृतियाँ स्वीकार किया है। कर्मप्रकृति चूणिमें प्रदेशसत्कर्मकी सादि-अनादि प्ररूपणा करते हुए लिखा है अणंताणुबंधीणं खवियकम्मंसिगस्स उव्वलंतस्स एगठितिसेसजहन्नगं पदेससं तं एगसमयं होति । यह एक उदाहरण है । अन्य प्रकृतियोंके विषयमें मूल और चूणिका आशय इसी प्रकार समझ लेना चाहिए। किन्तु जैसा कि पूर्व में निर्देश कर आये हैं कषायप्राभूत और उसकी चूर्णिमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन दो प्रकृतियोंको छोड़कर मोहनीयकी अन्य किसी प्रकृतिकी उद्वलना प्रकृतिरूपसे परिगणना नहीं की गई है। मतभेद सम्बन्धी दूसरा उदाहरण मिथ्यात्वके तीन भाग कौन जीव करता है इससे सम्बन्ध रखता है । श्वेताम्बर आचार्यों द्वारा लिखे गये कर्मप्रकृति और पंचसंग्रहमें यह स्पष्ट रूपसे स्वीकार किया है कि दर्शनमोहकी उपशमना करनेवाला मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्व गुणस्थानके अन्तिम समयमें मिथ्यात्व कर्मको तीन भागोंमें विभक्त करता है । पंचसंग्रह उपशमना प्रकरणमें कहा भी है उरिमठिइअणुभागं तं च तिहा कुणइ चरिममिच्छुदए देसघाईणं सम्म इयरणं मिच्छमीसाइं॥२३॥ कर्मप्रकृति और उसकी चूर्णिमें लिखा है तं कालं बीयठिई तिहाणुभागेण देसघाइ स्थ । सम्मत्त सम्मिस्सं मिच्छत्त सव्वघाईओ ॥१९॥ चूर्णि-चरिमसमयमिच्छद्दि छिसे काले उवसम्मदिठ्ठि होहि त्ति ताहे बितीयकृितीते तिहा अणुभागं करेति । अब इन दोनोंके प्रकाशमें कषायप्राभूत चूर्णिपर दृष्टिपात कीजिए। इसमें प्रथम समयवर्ती प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि जीवको मिथ्यात्वको तीन भागोंमें विभाजित करनेवाला कहा गया है । यथा: १०२. चरिमसमयमिच्छाइट्ठी से काले उवसमसम्मत्तमोहणीओ १०३. ताधे चेव तिण्णि कम्मंसा उप्पादिदा । १०४. पढमसमय उवसंतदंसणमोहणीओ मिच्छतादो सम्मामिच्छत्ते बहुगं पदेसग्गं देदि । (पृ० ६२८) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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