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________________ चतुर्थ खण्ड : ४१९ ईस प्रकार सब मिलाकर उक्त ४७ सूत्रगाथाओंके मूल कषायप्राभूत सिद्ध हो जाने पर क्रमांकसे लेकर 'आवलिय अणायारे' इत्यादि ६ सूत्र गाथाएँ भी मूल कषायप्राभृत ही सिद्ध होती हैं, क्योंकि यद्यपि आचार्य यतिवृषभने इनके प्रारम्भमें या अन्तमें इनकी स्वीकृति सूचक किसी चूणिसूत्रकी रचना नहीं की है। फिर भी वषायप्राभृत पर दृष्टि डालनेसे और खासकर उपशमना-क्षपणा प्रकरण पर दृष्टि डालनेसे यही प्रतीत होता कि समग्र भावसे अल्पबहत्वकी सूचक इन सूत्र गाथाओंकी रचना स्वयं गुणधर आचार्यने ही की है। इसके लिए प्रथमोपशम सम्यक्त अर्थाधिकारकी क्रमांक १८ गाथा पर दृष्टिपात कीजिये । इतने विवेचनसे स्पष्ट है कि आचार्य यतिवृषभको ये मूल कषायप्राभृत रूपसे ही इष्ट रही हैं । अतः सूत्रगाथाओंके संख्याविषयक उत्तरकालीन मतभेदोंको प्रामाणिक मानना और इस विषय पर टीका-टिप्पणी करना उचित प्रतीत नहीं होता। आचार्य वीरसेनने गाथाओंके संख्याविषयक मतभेदको दूर करनेके लिए जो उत्तर दिया है उसे इसी संदर्भमें देखना चाहिए। इस प्रकार श्वे. मुनि हेमचंद विजयने कषायप्राभृतका परिमाण कितना है इस पर खवसेढ़ि ग्रन्थकी अपनी प्रस्तावनामें जो आशंका व्यक्त की है उसका निरसन कर अब आगे हम उनके उन कल्पित तर्कों पर सांगोपांग विचार करेंगे जिनके आधारसे उन्होंने कषायप्राभूत को श्वेताम्बर आम्नायका सिद्ध करनेका असफल प्रयत्न किया है। (१) इस विषयमें उनका प्रथम तर्क है कि दिगंबर ज्ञान भण्डार मूडबिद्रीमें कषायप्राभृत मूल और उसकी णि उपलब्ध हुई है, इसलिए वह दिगम्बर आचार्यकी कृति है यह निश्चय नहीं किया जा सकता । (प्रथम पृष्ठ ३०). किन्तु कषायप्राभूत मल और उसकी चणि ये मडविद्रीसे दिगम्बर ज्ञान भण्डारमें उपलब्ध हुए है मात्र इसीलिए तो किसीने उन दोनोंको दिगम्बर आचार्योंकी कृति है ऐसा नहीं कहा है। किन्तु उक्त दोनोंके दिगंबर आचार्यों द्वारा प्रणीत होनेके अनेक कारण हैं। उनमेंसे एक कारण एतद्विषयक ग्रन्थोंमें श्वेताम्बर आचार्योकी शब्द योजना परिपाटीसे भिन्न उसमें निबद्ध शब्दयोजना परिपाटी है । यथा (अ) श्वेताम्बर आचार्यों द्वारा लिखे गए सप्ततिकाणि कर्मप्रकृति और पंचसंग्रह आदिमें सर्वत्र जिस अर्थमें 'दलिय' शब्दका प्रयोग हआ है उसी अर्थमें दिगम्बर आचार्यों द्वारा लिखे गये कषायप्राभूत आदिमें 'पदेसग्ग' शब्दका प्रयोग हुआ है । यथा 'तं वेयंतो बितियकिट्टीओ ततियकिट्टीओ य दलिय घेत्तूणं सुहुमसांपराइयकिट्टीओ करेइ ।' सप्ततिका चूणि पृ० ६६ अ० । (देखो उक्त प्रस्तावना पृ० ३२ ।) 'इच्छियठितिठाणाओ आवलियं लंघऊण तद्दलियं सन्वेसु वि निक्खिवइ ठितिठाणेसु उवरिमेसु ॥२॥' । -पंचसंग्रह उद्वर्तनापवर्तनाकरण 'उवसंतद्धा अंते विहिणा ओकड्डियस्स दलियस्स । अज्झवसाणणुरुवस्सुदओ तिसु एक्कयरयस्स ॥२२॥' -कर्मप्रति उपशमनाकरण पत्र १७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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