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________________ ४०४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ कणपिंड गुणसायर भुवण दिवायर पणविवि सिद्ध जिणेसर । वोछा में आराहण सिव सुहसाहण यह अखिय जिणवर वर ।। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि स्वामी ने एक स्वतन्त्र ज्ञानपिंड या ज्ञानपिण्ड पद्धाडिका नामक लघुकाय ग्रन्थ लिखा था । अतः इस सहित स्वामीजी द्वारा रचे गये ग्रन्थ १५ हो जाते हैं। यहाँ ऐसा समझना । श्री ब्रह्मचारीजीने अनुवादके लिए जो क्रम स्वीकार किया था वह गुटके में लिपिबद्ध हुए ग्रन्थों के क्रमसे थोड़ा भिन्न है । इस आधारपर यह कह सकना थोड़ा कठिन है कि स्वामीजीने इन ग्रन्थोंको मूर्त रूप देने में क्या क्रम स्वीकार किया होगा। फिर भी तीनों ठिकानेसारोंके आधार पर इतना तो निश्चय पूर्वक कहा ही जा सकता है कि ममलपाहड और तीन बत्तीसियोको कालके आधार पर रचनाके किसी क्रममें बांधना संभव नहीं है। विशेष स्पष्टीकरण उस-उस ग्रन्थका परिचय लिखते समय करोवेंगे ही। २. चार अनुयोग इस समय जितना भी जैन साहित्य उपलब्ध होता है उसे मख्यतया चार भागोंमें विभक्त किया गया है । प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग कहा भी है प्रथमं करणं चरणं द्रव्यं नमः । प्रथमो व्युत्पन्नो मिथ्यादृष्टिः, तस्मै योऽनुयोगः स प्रथमानुयोग । अर्थात् किसे तत्वज्ञानकी खबर नहीं है, किन्तु उसे जाननेके लिए उत्सूक है उसको तत्त्वज्ञानमें प्रवेश कराने में प्रधान साधनभत अनुयोगको प्रथमानुयोग कहते हैं । अर्थात् जो व्यक्ति जैन धर्मकी प्रारम्भिक शिक्षा लेना चाहते है उन प्राथमिक थावकों के लिए कथापुराण सर्वोत्तम उपाय है। उसके माध्यमसे पुण्य पापका ज्ञान होनेपर भी परिणामोंकी जातिके परिज्ञान पूर्वक किस प्रक्रियासे मोक्षमार्गमें प्रवेश होकर मोक्षकी प्राप्ति होती है इसका सम्यक परिज्ञान करानेके लिये प्रथमानुयोगके बाद करणानुयोग रखा गया है। किन्तु चरणानुयोग और द्रव्यानुयोगका निकटका सम्बन्ध है क्योंकि जिसने मोक्षमार्गमें प्रयोजनीय समझकर उत्तरोत्तर रागभावकी हानि पूर्वक तदनुरूप आचारमें आनुपूर्वीसे ता प्राप्त करता जाता है वही स्वावलम्बन पूर्वक आत्मस्थ होनेका अधिकारी होता है, इसलिए तीसरे स्थानपर चरणानुयोग और चौथे स्थानपर द्रव्यानुयोगको रखा गया है। ग्रंथ रचना क्रम विचार स्वामीजी द्वारा रचित समग्र साहित्यपर दृष्टिपात करनेसे यह नहीं मालूम पड़ता कि उन्होंने सर्वप्रथम किस ग्रन्थ की रचनाकी थी और उसके बाद आगे अन्य ग्रन्थोंकी रचनामें क्या क्रम स्वीकार किया था । इसलिए कालके आधारपर ग्रन्थ रचनाके क्रमको स्वीकार करना तो सम्भव नहीं है फिर भी भगवान् महावीरके प्रधान-शिष्य गौतम गणधरने ११ अंग और १४ पूर्वोको मूर्त रूप देते हुए सर्वप्रथम आचारांगकी रचना की थी। उसके बाद सूत्रकृतांग आदि ११ अंगोंकी रचना करके सबके अन्तमे १४ पूर्व गर्भ दृष्टि अंगकी रचना की थी। पूर्वकालमें गुरु अपने शिष्यको वाचना भी इसी क्रमसे देते थे। गुरुके द्वारा शिष्यको निर्दोष रूपसे शब्द और अर्थ दोनोंका प्रदान करना इसका नाम वाचना था। धवला पुस्तक निबद्ध ४४ मंगल सूत्र और उनकी घवला टीका द्रष्टव्य है। उसमें वे लिखते हैं कि इस अनुयोगद्वारमें जो ४४ मंगलसूत्र निबद्ध हैं उनकी रचना महाकम्मपयडि पाहुडके प्रारम्भमें स्वयं गौतम गणधरने की थी। उनमेंसे १२-१३ संख्यांक मंगलसूत्र है। उनमेंसे प्रथम मंगल १. धवला पुराण ९, पृ० १०४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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