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________________ चतुर्थ खण्ड : ४०५ सूत्र द्वारा अभिन्न १० पूर्वियोंको नमस्कार किया गया है तथा इनको नमस्कार करते हुए १३वें सूत्रमें १४ पूर्वियोंको नमस्कार किया है। वहाँ (प्रथम सूत्रकी व्याख्या करते हुए) यह शंका उठाई गई है कि सर्वप्रथम चौदह पूर्वियोंको नमस्कार न कर दशपूर्वी जिनोंको नमस्कार क्यों किया गया है। इसका समाधान स्वयं वीरसेन स्वामीने दो प्रकारसे किया है । प्रथम समाधानके प्रसंगसे व लिखते है तत्थ एक्कारसंगाणि पढिदूण पुणो परियम्म-सुत्त-पढमाणि योगपुव्वगय-चूलिया त्ति पंचाहियाणिवद्धदिवादे पढिज्जमाणे उप्पादपुव्वमादि कादूण पढंताणं दसपुव्वीए विज्जाणुवादे समत्ते रोहिणी आरिपंचसम महाविज्जायो सत्तसयदहरविज्जायाहि अणुगयाओ किं भयवं आणावेदि त्ति दुक्कंति । एवं दुक्काणं सव्वविज्जाणं जो लोभं गच्छदि सो भिण्णदसपुवी। जो पुण तासुंण लोभं करेदि कमक्खय त्थी हों तो सो अभिण्णदस्सपुचीणाम । तत्थ अभिण्णदसपुव्वी जिणाणं णमोक्कारं करेमि त्ति उत्तं होदि । किं भयव आणावेदि विठुक्कंति एवं ठक्काणं सव्वविज्जाणं जो लोभं गच्छादि सो भिण्णदसपुवी । जो पुण तासु ण लोभं करेदि कम्मक्खयत्पी होतों सो अभिण्णदस्सपुवीणाम । तत्थ अभिण्णदसपुव्वीजिणाणं णमोक्कार कामित्ति उत्तं होदि । - इसका अर्थ है-वहाँ ग्यारह अंगोंको पढ़कर पुनः परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्ववात और चूलिका इन पाँच अधिकारोंमें निबद्ध दष्टिवादको पढते हए उत्पाद पूर्वसे लेकर पढ़ने वालेके दशम पूर्व विद्यानुवादके समाप्त होनेपर ७०० क्षुल्लक विद्याओंसे अनुगत रोहिणी आदि ५०० महाविद्याऐं भगवन् ! क्या आज्ञा देते हैं ऐसा कहकर उपस्थित होती हैं । इस प्रकार उपस्थित हुई सब विद्याओंके अनुसार जो लोभको प्राप्त होता है वह भिन्न दशपूर्वी है और जो कर्मक्षयका अर्थी होता हुआ उनमें लोभ नहीं करता वह अभिन्नदशपूर्वी है । उनमेंसे यहाँ अभिन्न दशपूर्वी जिनोंको मैं नमस्कार करता हूँ यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इस उल्लेखसे यह स्पष्ट है कि गौतमगणधरने सर्वप्रथम आचारांगकी रचना की थी। तदनन्तर सूत्रकृतांग आदि १२ अंगोंकी रचना की थी। गुरु शिष्यको वाचना भी इसी क्रमसे देता है यह भी इससे स्पष्ट हो जाता है। यदि दूसरे मंगलसूत्रपर दृष्टि डालते हैं तो उसकी टीकासे भी इसी अर्थकी पुष्टि होती है। लिखा है सेसहेट्ठित पुवीर्ण णमोक्कारो कि ण कदोरणु, तेसि चि कदो चेव, तेहि विणा चौदसपुव्वाणुववत्तीर्यो। शंका-अस्वस्तन शेष पूवियोंको नमस्कार क्यों नहीं किया ? समाधान नहीं उनको नमस्कार किया ही है, क्योंकि जो अधस्तन पूर्वी जिन नहीं हुए हैं उनका चौदस पूर्वी जिन होना सम्भव नहीं है । यह अध्ययन-अध्यापन और ग्रंथ रचनाका क्रम है। इसे ध्यानमें रखकर विचार करनेपर ऐसा लगता है कि इसी परिपाटीका अनुसरण करते हए स्वामीजीने भी सर्व प्रथम श्रावकाचारकी रचना की होगी। यह कहना कि आचारांग तो भुवि-आचारका ग्रन्थ है और स्वामीजी द्वारा रचित ग्रन्थ मुख्यतया श्रावकाचार सम्बन्धी है, इसलिए पूर्वोक्त तर्कके अनुसार स्वामीजीने मुल परम्पराका अनुसरण करके सर्वप्रथम श्रावकाचारकी रचना क्यों की उन्होंने, भ्रति आचार सम्बन्धी ग्रन्थकी रचना क्यों नहीं की। इसके दो समाधान हो सकते है-प्रथम तो यह कि यह भले ही मुख्यतया श्रावकाचार सम्बन्धी ग्रन्थ हो, पर है तो यह आचार विषयक ही साथ ही । देश-कालको देखते हुए इतिहासपर दृष्टिपात करनेसे मालूम पड़ता है कि उनके कालमें आचार विषयक शिथिलता बहुत कुछ बढ़ गई थी इसलिए भूलमें सुधार करनेके अभिप्रायसे उन्होंने सर्वप्रथम श्रावकाचारकी रचना करना ही इष्ट माना होगा। दूसरे ऐसा लगता है कि उन्होंने जो कुछ भी लिखा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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