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________________ चतुर्थ खण्ड : ४०३ कुवरू सुदि ग्यारास वर्षे सोरहसै दिवनरास्य........... ....अलासान पंडे....... ........ मतलब यह है कि किसी अलासान पांडेने कुवार सुदी ६ रविवार वि० सं० १६०० को इस गुटकाकी प्रतिलिपि समाप्त की थी। इससे यह साफ मालूम पड़ जाता है कि आजसे लगभग ४३७ वर्ष पूर्व यह गुटका लिपिबद्ध किया गया था। उक्त उल्लेखसे प्रतिलिपिकार विशेष शिक्षित नहीं जान पड़ता इसलिए संभव है कि जिस प्रतिके आधारसे प्रतिलिपिकारने इस गुटकाको लिपिबद्ध किया होगा वह अपेक्षाकृत परिष्कृत भाषामें रहा होगा। यह भी सम्भव है कि स्वामीने अपनी समस्त रचनाओंके लिये उक्त गुटकामें निबद्ध भाषाको ही अपनाया होगा । जो कुछ भी हो इतना अवश्य है कि आगे स्वामीजीकी किसी भी रचनाको मुद्रित करते समय उसका मिलान गुटकामें निबद्ध रचनासे अवश्य करा लेना चाहिये। क्योंकि ऐसा करनेसे उक्त ग्रन्थकी भाषाके सुधारमें थोड़ा बहुत लाभ मिल सकता है । जिसमें लिपिबद्ध हुए ग्रन्थोंका क्रम इस प्रकार हैग्रन्थ का नाम पत्र संख्या गाथा संख्या १. श्रावकाचार ६ से ३१ ९५ से ४६२ २. उपदेश शुद्धसार ३१ से ७५ ५८८ ३. ज्ञानसमुच्चयसार ७५ से १३३ ९०७ ४. त्रिभंगीसार १३३ से १३८ ५. पंडितपूजा १० प्रारंभके ७. कमलबत्तीसी १४३ से १४५ ૩૨ ७. ज्ञानपिंड १४५ से १४७ ___ इस प्रकार उक्त गुटका पर दृष्टिपात करनेसे यह स्पष्ट हो जाता है कि इस गुटकेके प्रारम्भके पाँच पत्र त्रुटित हो जानेसे इसमें श्रावकाचारके ९४ पद्य उपलब्ध नहीं होते। इसी प्रकार पत्र १३८ का उत्तरार्ध और पत्र १२९ का पूर्वार्ध तथा पत्र १४०, १४१, १४२ और १४३ का पर्वार्ध त्रटित हो जानेसे इसमें पंडित पूजाके प्रारंभिक १० से लेकर ३२ तकके पद्य और मालारोहण नहीं उपलब्ध होते । पद्य शेष जो ग्रन्थ इसमें संकलित किये गये हैं वे सब अर्थसे लेकर इति पर्यन्त पूर्ण रूपसे उपलब्ध होते हैं। यह इस गुटकेका परिचय है। इसमें सबके अन्तमें ज्ञानपिंड नामक एक स्वतंत्र प्रकरण लिपिबद्ध है । उसके प्रारंभमें यह पद्य उपलब्ध होता है। इय जिनवर भासओ विहपयसिओ सुनिसेनिय समयित्तथिरू संस्तर निवारन्तु सवगै कारनु धर्मधरा.................. तथा इसके अन्तमें यह पद्य उपलब्ध होता है इय न्यानपिंड................न्यान विन्यान संजुल । इय न्यानपिंड................लहै सुख्यते मुक्तिवरं ।। गजबासौदाके बीचके चैत्यालयमें भी एक ज्ञानपिंड माल्हडी नामक स्वतन्त्र ग्रन्थ पाया जाता है। मेरे ख्यालसे ये दोनों एक होने चाहिये । फिर भी मेरी जिज्ञासा समाप्त नहीं हुई। अतः मेरे द्वारा भी डा० कस्तूर चन्दजी द्वारा सम्पादित कतिपय शास्त्र भंडारोंकी हस्तलिखित ग्रन्थ शास्त्रियोंका अवलोकन करने पर मालूम हुआ कि इस ज्ञानपिंडके अतिरिक्त इसी नामका एक ग्रन्थ और है। किन्तु उसका विषय इससे भिन्न चार आराधना है, उसका प्रारंभिक अंश इस प्रकार है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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