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________________ चैतुर्थ खण्ड : ३७१ पहले मध्यप्रदेशमें दमोहके पासके सिद्धक्षेत्रको कुण्डलपुर कहा जाता था, इसलिये भी कुण्डलगिरि कहाँ पर है यह विवादका विषय बना हुआ था। क्योंकि अभीतक कुंडलपुर नामके चार स्थान स्वीकार किये जाते रहे हैं। उनमेंसे प्रकृत कुण्डलपुर कहाँ पर है यह विचारणीय हो जानेसे यहाँ पर विचार किया जाता है। १. जहाँ भगवान् महावीर स्वामीका जन्म हुआ था, उसका नाम तो वास्तवमें कुण्डलग्राम है किन्तु लोकभाषामें उसे कुण्डलपुर कहा जाता है। कुछ आचार्योंने भी इसे कुण्डलपुर नामसे स्वीकार किया है। २. नालन्दाके निकट बड़ागाँवको कुण्डलपुर मानकर, उसे वर्तमानमें भगवान् महावीरका जन्म स्थान मानती है । इसलिए वहाँ एक जिन मन्दिर भी बना हुआ है। साधारण जनता वन्दनाकी दृष्टिसे वहाँ पहुँचती रहती है। ___३. एक कुंडलपुर सातारा जिलेमें स्थित है । पूनासे सातारावाले रेलमार्गपर किर्लोस्कर वाड़ीसे ५ मील पर यह स्थान स्थित है । यहाँ स्थित पहाड़ पर दो जिन मन्दिर भी बने हुए हैं, इसलिये यह तीर्थक्षेत्रके रूपमें माना जाता है। ४. मध्यप्रदेश दमोह जिलेके अन्तर्गत ३५ कि. मी० दूर ईशान दिशामें जो क्षेत्र अवस्थित है उसके पास कुंडलपुर नामका गाँव होनेसे, क्षेत्रको भी कुंडलपुर कहा जाता रहा है। पर वहाँ स्थित क्षेत्रका नाम वास्तवमें कुण्डलगिरि ही है। इस प्रकार कुंडलपुर नामके ये चार स्थान प्रसिद्ध हैं । इनमेंसे दो ही ऐसे स्थान हैं जो विचार कोटिमें लिये जा सकते हैं । एक महाराष्ट्रमें सातारा जिलेके अन्तर्गत कुण्डलपुर स्थान और म० प्र०में दमोह जिलेके अन्तर्गत कुण्डलपुर स्थान । इन दोनों स्थानोंपर जो पर्वत हैं उन पर जिन मन्दिर बने हुए हैं। इसलिये दोनों ही स्थान क्षेत्रके रूपमें प्रसिद्ध हैं । अब देखना यह है कि इन दोनों स्थानोंमेंसे सिद्धक्षेत्र कौन हो सकता है ? १. जैसाकि हम त्रिलोक प्रज्ञप्तिका प्रमाण उपस्थित कर आये हैं, उससे तो यही मालूम पड़ता है कि जो कुंडलाकार गिरि है वही सिद्धक्षेत्र हो सकता है, दूसरा नहीं। और इस बातको ध्यानमें रखकर जब हम विचार करते हैं तो इससे यही सिद्ध होता है कि दमोह जिलेमें कुंडलपुरके अतिनिकटका पहाड़ ही कुंडलगिरि सिद्धक्षेत्र होना चाहिए । यह गिरि स्वयं तो कुंडलाकार है ही, किन्तु इस गिरिसे लगकर कुण्डलाकार गिरियों की एक शृखला चालू हो जाती है। दमोहसे कटनीके लिये जो सड़क जाती है, उसपर अवस्थित जो प्रथम कुण्डलाकार गिरि है वही प्राचीन कालसे सिद्धक्षेत्र माना जा रहा है। इसलिये उस गिरिपर स्थित पूरे सिद्धक्षेत्रके दर्शन हो जाते हैं । किन्तु उससे लगकर जुड़ा हुआ जो कुण्डलाकार दूसरा गिरि मिलता है उसकी रचना भी ऐसी बनी हुई कि जिसके उससे मध्यमें सड़कसे चार-पाँच जिन मन्दिरोंके दर्शन हो जाते हैं। यही स्थिति तीसरे, चौथे और पाँचवें कुण्डलाकार गिरियोंकी है। मात्र उन गिरियोंपर स्थित जिन मन्दिरोंका दर्शन सड़क से उत्तरोत्तर संख्यामें कम होता जाता है। इसलिये इन गिरियोंकी ऐसी प्राकृतिक रचनाको देखकर यह निश्चय होता है कि त्रिलोक प्रज्ञप्तिमें जिस कुण्डलगिरि सिद्धक्षेत्रका उल्लेख है वह यही होना चाहिये। २. इंडियन एन्टीक्वेयरीमें नन्दिसंघकी एक पट्टावलि अंकित है, जिसे जैन सिद्धान्त भास्कर भाग १ ग्रंथ ४ पृ० ७९ स० १९१३ में मुद्रितकी गयी है। यह पट्टावलि द्वितीय भद्रबाहसे चाल होती है। इसमें बतलाया गया है कि विक्रम सं० ११४०में महा चन्द्र या माधवचन्द्र नामके जो पट्टधर आचार्य हुए हैं उनका मुख्य स्थान कुण्डलपुर (दमोह जिले) था । इनका पट्ट पर बैठनेका क्रमांक ५२ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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