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________________ चतुर्थखण्ड : ३६३ भ० श्री सिंहकीर्तिदेव चंदेरीमंडलाचार्य श्री देव्यंद्रकीर्तिदेव त० श्री त्रिभुवन - कीर्तिदेव पौरपट्टान्वे अष्टन्वये सारवन पु० समवेतस्य पुत्र रउत पाये त० पुत्र सा० अर्जुन त० पुत्र सा० नेता पुत्र सा० धीरजु भा० विरेजा पुत्र संघ सघे...सघे । तु० भा० " ठीक इसी प्रकारका एक लेख कारंजाके एक मन्दिरमें भी उपलब्ध हुआ है । इसके पूर्व जिनमें चंदेरी मण्डलका उल्लेख है ऐसे दो लेख वि० सं० १५३१ के गंजवासोदा और गुना मन्दिरोंके तथा दो लेख वि० सं० १५४२ के भी उपलब्ध हुए हैं । किन्तु वि० सं० १५३१ को चंदेरी मण्डलकी स्थापनाकी पूर्वावधि नहीं समझनी चाहिए । कारण कि ललितपुरके बड़े मन्दिरसे प्राप्त वि० सं० १५२५ के एक प्रतिमा लेखमें त्रिभुवनafrat मंडलाचार्य कहा गया है। इसमें भ० देवेन्द्रकीर्तिका नामोल्लेख नहीं है । इससे ऐसा प्रतीत होता है कि वि० सं० १५२५ के पूर्व ही त्रिभुवनकीर्ति चंदेरी पट्टपर अभिषिक्त हो गए थे। साथ ही यहाँ भ० जिनचन्द्र और भ० सिंहकी की भी आम्नाय चालू थी यह भी इससे पता लगता है । पूरा लेख इस प्रकार है : संवत् १५२५ वर्षे माघ सुदि १० सोमदिने श्री मूलसंघे भट्टारक श्री जिनचन्द्रदेवस्तत्पट्टे भट्टारक श्री सिंहकीर्तिदेव मंडलाचार्य त्रिभुवनकीर्तिदेवा गोला पूर्वान्वये सा० श्री तम तस्य भार्या संघ इति । इसके पूर्व बड़ा मन्दिर चंदेरीमें भ० त्रिभुवनकीर्ति द्वारा प्रतिष्ठित वि० सं० १५२२ की एक चौबीसी पट्ट और । इसके पूर्व के किसी प्रतिमा लेखमें इनके नामका उल्लेख नहीं हुआ है । इससे मालूम पड़ता है कि वि० सं० १५२२ के आसपासके कालमें ये पट्टासीन हुए होंगे । यतः भ० देवेन्द्रकीर्ति भी चंदेरी मंडलके मंडलाचार्य रहे हैं, अतः सर्वप्रथम वे ही चंदेरी पट्टपर आसीन हुए होंगे यह स्पष्ट हो जाता है । वि० सं० १५२२ का उक्त प्रतिमा लेख इसप्रकार है : सं० १५२२ वर्षे फाल्गुन सुदि ७ श्री मूलसघे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे कुन्दकुन्दाचार्यन्वये भट्टारक श्री देवेन्द्रकीर्ति त्रिभुवन -- ति........ भानुपुराके बड़े मन्दिरके शास्त्र भण्डारमें शान्तिनाथ पुराणकी एक हस्तलिखित प्रति पाई जाती है । उसके अन्तमें जो प्रशस्ति अंकित है उसमें देवेन्द्रकीर्ति आदिकी भट्टारक परम्पराको मालवाधीश कहा गया है । इससे मालूम पड़ता है कि चंदेरी पट्टको मालवा पट्ट भी कहा जाता था । यह भी एक ऐसा प्रमाण है जिससे स्पष्टतः इस तथ्य का समर्थन होता है कि चंदेरी पट्टके प्रथम भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति ही रहे होंगे । उक्त प्रशस्ति इस प्रकार है । अथ संवत्सरे स्मिन् नृपतिविक्रमादित्य राज्ये प्रवर्तमाने संवत् १६६३ वर्षे चैत्र द्वितीयपक्षे शुक्ले पक्षे द्वितीया दिने रविवासरे "सिरोंजनगरे चन्द्रप्रभचत्यालये श्रीमूलसंघे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे श्री कुन्दकुन्दाचार्यान्वये तत्परंपरायेन मालवादेशाधीश भट्टारक श्री श्री श्री देवेन्द्रकीर्तिदेवाः तत्पट्टे भट्टारकी त्रिभुवनकीर्तिदेवाः तत्पट्टे भट्टारक श्री सहस्रकीर्तिदेवाः तत्पट्टे भट्टारकश्री पद्मनंदिदेवा तत्पट्टे भट्टारक श्री जलकीर्ति नामधेया तत्पट्टे भट्टारकश्री श्री ललितकीर्तिदेवाः तत्शिष्य ब्रह्म बालचन्द्रमिद्रं ग्रन्थ लिष्यतं स्वपठनार्थं । सिरोंजके टोरीका दि० जैन मन्दिरमें वि० सं० सहस्रकीर्ति स्थानमें रत्नकीर्ति और पद्मनंदिके स्थान में कीर्ति के शिष्य भ रत्नकीर्तिने इस प्रतिमाकी प्रतिष्ठा कराई थी । उक्त प्रतिमालेख इसप्रकार है : सं० १६८८ वर्षे फागुन सुदि ५ बुधे श्री मूलसंघे बलात्कारगणे सरस्वतीगछे कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भट्टारक श्री देवेन्द्र कीर्तिदेवास्तत्पट्टे भ० श्री त्रिभुवनकीर्तिदेवा तत्पट्टे श्री रत्नकीर्ति तत्पट्टे भ० १६८८ का एक प्रतिमा लेख है । उसमें चंदेरी पट्टके पद्मकीर्ति यह नाम उपलब्ध होते हैं । भ० ललित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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