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________________ ३६२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ नहीं होता। इसके विपरीत उत्तर भारतमें ऐसे लेख अवश्य पाये जाते हैं जिनसे यह ज्ञात होता है कि इनका लगभग पूरा समय उत्तर भारतमें ही व्यतीत हुआ था। यहाँ हम ऐसी एक प्रशस्ति जयपुरके एक जैन मन्दिरमें स्थित पुण्यास्रव (संस्कृत) की हस्तलिखित ग्रन्थसे उद्धृत कर रहे है। इसमें इन्हें भ० पद्मनन्दिका शिष्य स्वीकार किया गया है । प्रशस्ति इसप्रकार है : __ सं० १४७३ वर्षे कार्तिक सुदी ५ गुरदिने श्री मूलसंघे सरस्वतीगच्छे नन्दिसंघे कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भट्टारक श्री पद्मनन्दीदेवास्तच्छिष्य मुनिश्री देवेन्द्रकीतिदेवाः । तेन विजज्ञाया वर्गीकर्मक्षयार्थ लिषापितं शुभं । इस लेखमें इन्हें मुनि कहा गया है। इसके अनुसार यह माना जा सकता है कि इस समय तक ये पट्टधर नहीं हुए होंगे। किन्तु मुनि भी भट्टारकोके शिष्य होते रहे हैं। इतना ही नहीं, मुनि दीक्षा भी इन्हीके तत्वावधानमें दी जानेकी प्रथा चल पड़ी थी। मेरा ख्याल है कि वर्तमानमें जिस विधिसे मुनि दीक्षा देनेकी परिपाटी प्रचलित है वह भट्रारक बननेके पूर्वकी मुनि-दीक्षाका रूपान्तर है। इसीसे उसमें विशेष रूपसे सामाजिकताका समावेश दृष्टिगोचर होता है। जो कुछ भी हो, उक्त प्रशस्तिसे इतना निष्कर्ष तो निकाला ही जा सकता है कि सम्भवतः उस समय तक इन्होंने किसी भट्टारक गद्दीको नहीं सम्हाला होगा। किन्तु 'भट्टारक सम्प्रदाय' पृ० १६९ के देवगढ़ (ललितपुर) से प्राप्त एक प्रतिमा-लेखसे इतना अवश्य ज्ञात होता है कि ये वि० सं० १४९३ के पूर्व भट्टारक पदको अलंकृत कर चुके थे। देवगढ़ बंदेलखण्डमें है और चंदेरीके सन्निकट है। साथ ही इनके प्रमुख शिष्य विद्यानन्दी परवार थे । इससे ऐसा तो लगता है कि वि० सं० १४९३ के पूर्व ही चंदेरी पर स्थापित किया जा चुका होगा। फिर भी उनकी गुजरातमें भी पूरी प्रतिष्ठा बनी हुई थी और उनका गुजरातसे सम्बन्ध विच्छिन्न नहीं हुआ था, सूरतके पास रांदेर पट्टका प्रारम्भ होना और उसपर उनके शिष्य विद्यानन्दीका अधिष्ठित होना तभी सम्भव हो सका होगा । 'भट्टारक सम्प्रदाय' पुस्तकमें चंदेरी पट्टको जेरहट पट्ट कहा गया है, वह ठीक नहीं है। हो सकता है कि वह भट्टारकोंके ठहरनेका मुख्य नगर रहा हो । पर वहाँ कभी भट्टारक गद्दी स्थापित नहीं हुईं, इतना सुनिश्चित प्रतीत नहीं होता। विद्यानन्दी कब रांगेर पट्रपर अधिष्ठित हुए इसका कोई स्पष्ट उल्लेख उपलब्ध नहीं होना । 'भट्टारक सम्प्रदाय' पुस्तकमें वि० सं० १४९९ से लेकर अधिकतर लेखों से किसीमें इनको देवेन्द्रकीतिका शिष्य, किसीमें दीक्षिताचार्य, किसीमें आचार्य तथा किसीमें गुरु कहा गया है। परन्तु भावनगरके समीप स्थित घोघानगरके सं० १५११ के एक प्रतिमा लेखमें इन्हें भट्टारक अवश्य कहा गया है। यह प्रथम लेख है जिसमें सर्वप्रथम ये भट्टारक कहे गए है । इससे ऐसा लगता है कि रांदेर पट्टकी स्थापना इसके पूर्व ही हो गयी होगी। यदि हमारा यह अनुमान सही हो तो ऐसा स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं कि चंदेरी पट्टकी स्थापनाके बाद ही रांदेरसे बदलकर सुरत पट्टकी स्थापना हई होगी। ऐसा होते हुए भी बुन्देलखण्ड और उसके आस-पासका बहुभाग चंदेरी मण्डल कहा जाता था, यह उल्लेख वि० संवत् १५३२ के पूर्वके किसी प्रतिमा लेखमें दृष्टिगोचर नहीं हआ। इसमें चंदेरी मण्डलाचार्य देवेन्द्रकीतिको स्वीकार किया गया है। यह प्रतिमा लेख हमें विदिशाके बड़े मन्दिरसे उपलब्ध हुआ है । पूरा लेख इसप्रकार है : संवत् १५३२ वर्षे वैशाख सुदी १४ गुरौ श्रीमूलसंघे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे नंदिसंघे कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भ० श्री प्रभाचन्द्रदेव त० श्री पद्मनंदिदेव त० शुभचंद्रदेव भ० श्री जिनचन्द्रदेव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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