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________________ ३६४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ श्री पद्मकीर्तिदेवा तत्पट्टे भ० यशकीर्तिदेवा तत्पट्टे भ० श्री ललितकीर्ति रत्नकीर्ति देवा तस्योमालवदेशे सरोजनगरे गोलाराडचैत्यालये गोलापूर्वान्वये - तस्य प्रतिष्ठायां प्रतिष्ठितं । यहाँके दो प्रतिमालेखोंमें भ० रत्नकीर्तिको मंडलेश्वर और मंडलाचार्य भी कहा गया है । लेख इस प्रकार है : सं० १६७२ फा० सु० ३ मूलसंघे भ० श्री ललितकीर्ति तत्पट्टे मंडलाचार्य श्री रत्नकीत्यु पदेशात् गोलापूर्वान्वये सं० सनेजा " । ये कहाँके मंडलाचार्य थे यह नहीं ज्ञात होता है । ये भी भ० ललितकीर्तिके पट्टधर थे । यह भट्टारक सम्प्रदाय पुस्तकसे भी ज्ञात होता है । इनके पट्टधर चन्द्रकीर्ति थे इसके सूचक दो प्रतिमालेख यहाँ भी पाए जाते हैं । चन्देरी पट्टके भट्टारकों की सूची इस प्रकार है । १ देवेन्द्रकीर्ति, २ त्रिभुवनकीर्ति, ३ सहस्रकीर्ति ४ पद्मनन्दी, ५ यशः कीर्ति, ६ ललितकीर्ति, ७ धर्मकीर्ति, ८ पद्मकीर्ति, ९ सकलकीर्ति और सुरेन्द्रकीर्ति । जान पड़ता है कि सुरेन्द्रकीर्ति चंदेरी पट्टके अन्तिम भट्टारक थे । इसके बाद यह पट्ट समाप्त हो गया । भट्टारकपद्मकीर्तिका स्वर्गवास वि० सं० १७१७ मार्गशीर्ष सुदि १४ बुधवारको हुआ था ऐसा चंदेरी खंदारमें स्थित उनके स्मारकसे ज्ञात होता है । सम्भवतः इसके बाद ही इनके पट्टपर भ० सकलकीर्ति आसीन हुए होंगे । 'भट्टारक सम्प्रदाय' पुस्तक पृ० २०५ में वि० सं० १७१२ और वि० सं० १७१३ के लेखोंमें इनके नामके जो दो लेख संगृहीत किए गए हैं वे दूसरे सकलकीर्ति होने चाहिए। मैंने चंदेरी और सिरोंज दोनों नगरों के श्री दि० जैन मन्दिरोंके प्रतिमालेखों का अवलोकन किया है । पर भ० सुरेन्द्रकीर्ति द्वारा प्रतिष्ठापित कोई मूर्ति या यंत्र वहाँ मेरे देखने में नहीं आया । हो सकता है इनके कालमें कोई पंचकल्याणक प्रतिष्ठा न हुई हो । उक्त दोनों नगरोंके मूर्ति लेखोंके अवलोकनसे प्रतीत होता है कि भ० धर्मकीर्ति के दूसरे शिष्य भ० जगत्कीर्ति थे । सम्भवतः सिरोंज पट्टकी स्थापना इन्होंके निमित्त हुई होगी। इनका दूसरा नाम यशकीर्ति भी जान पड़ता है । इनके पट्टधर त्रिभुवनकीर्ति और उनके शिष्य भ० नरेन्द्रकीर्ति थे । नरेन्द्रकीर्तिके पट्टाभिषेकका विवरण सिरोंजके एक गुटिकामें पाया जाता है। उसका कुछ अंश इस प्रकार : मुनिराज की दिक्ष्याको परभाव । श्रावक सब मिलि आनिके जैसो कियो चाउ ||६|| घनि नरेन्द्रकीर्ति मुनिरा । भई जगमें बहुत बढ़ाई || जहाँ पौरपट्ट सुखदाई । परवारवंस सोई आई ॥ वहुरिया मूर तहाँ साई । धनि मथुरामल्ल पिताई ।। माता नाम रजौती कहाई । जाके है घनश्यामसे भाई ॥ तप तेज महा मुनिराई । महिमा वनी जाई ॥ कहा कहीं मुनिराजके गुणगण सकल समाज । जो महिमा भविजन करे भट्टारक पदराज ।। भट्टारक पदराजकी कीरति सकल भवि आई । अलप बुद्धि कवि कहा कहै बुधिजन थकित रहाई ॥ विधि अनेक सो सहर सिरोंजमें भयो पट्ट अपना चारु | सिंघई माधवदास भवन ते निकसे महा महोच्छव सारु ॥ यहाँसे वस्त्राभूषणसे सुसज्जित कर चांदा सिंघईके देवालयमें ले गये । वहाँ सब वस्त्राभूषण उतारकर केशलोंचकर मुनिदीक्षा ली । उस समय १०८ कलशसे अभिषेक किया । सर्वप्रथम भेलसा के पूरनमल्ल बडकुर आदि ने किया । जगत्कीर्ति पद उधरन त्रिभुवनकीर्ति मुनिराई । नरेन्द्रकीर्ति तिस पट्ट भये गुलाल ब्रह्म गुन गाई || शुभकीर्ति, जयकीर्ति, मुनि उदयसागर, ब्र० परसराम, ब्र० भयासागर, रूपसागर, रामश्री आर्यिका बाई भौनी, चन्द्रामती, पं० रामदास, पं० जगमनि, पं० घनश्याम, पं० बिरधी, पं० मानसिंह, पं० जयराम ... परगसेनि भाई दोनों, पं० मकरंद, पं० कपूरे, पं० कल्याणमणि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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