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________________ चतुर्थ खण्ड : ३३७ (५) हाँ उपशमना प्रकरणकी इन दोनों चूर्णियोंके अध्ययनसे इतना अवश्य ही स्वीकार किया जा सकता है कि जिस श्वेताम्बर आचार्यने कर्मप्रकृति चूर्णिकी रचना की है उसके सामने कषायप्राभृत चूर्णि अवश्य रही है । प्रमाणस्वरूप कषायप्राभृत गाथा १२२ की नूणि और श्वे० कर्मप्रकृति गाथा ५७ की चूर्णि द्रष्टव्य है दिविहो परिवादो — भवक्खएण च उवसामणक्खएण च भवक्खएण पदिदस्स । सव्वाणि करणाणि एगसमएण उग्घाडिदाणि । पढमसमए चैव जाणि उदीरज्जति कम्माणि ताणि उदयावलियं पवेसदाणि, जाणिण उदीरज्जति ताणि वि ओकडिदूण आवलियबाहिरे गोवुच्छाए सेढीए णिक्खिताणि । - क० पा० सुत्त पृ० ७१४ । यह कषायप्राभृतचूर्णि का उल्लेख है । इसके प्रकाशमें श्वे० कर्मप्रकृति उपशमनाप्रकरणकी इस चूर्णिपर दृष्टिपात कीजिए - इयाणि पडिपातो सो दुविहो - भवक्खएण उवसमद्धक्खएण य। जो भवक्खएण पडिवज्जइ तस्स सव्वाणि एतसमएण उग्घाडिदाणि भवंति । पढमसमये जाणि उदीरंज्जति कम्माणि ताणि उदयावयं पवेसियाणि जाणिण उदीरिज्जति ताणि उकड्डिऊण उदयावलियबाहिरतो उवरिं गोपुच्छागितीते सेढीने तेति । जो उवसमद्धाक्खंएण परिपडति तस्स विहासा । — पत्र ६९ । दोनों चूर्णियोंके उन दो उल्लेखांमेंसे कषायप्राभृत चूर्णिको सामने रखकर कर्मप्रकृति चूर्णिके पाठपर दृष्टिपात करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि कर्मप्रकृति चूर्णिकारके सामने कषायप्राभृत चूर्णि नियमसे रही है । प्रथम तो उसका कारण कर्मप्रकृतिचूर्णिके उक्त उल्लेख में पाया जानेवाला पाठ 'तस्स विहाए' पाठ है, क्योंकि किसी मूलसूत्र गाथाका विवरण उपस्थित करनेके पहले 'एत्तो सुत्तविहासा' या ' वस्स विहासा' या मात्र 'विहासा' पाठ देनेकी परम्परा कषायप्राभृतचूर्णिमें ही पाई जाती है । किन्तु श्वे० कर्मप्रकृति चूर्णिमें किसी भी गाथा चूर्णि लिखते समय 'तस्स विहासा' यह लिखकर उसका विवरण उपस्थित करनेकी परिपाटी इस स्थलको छोड़कर अन्यत्र कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होती । एक तो यह कारण है कि जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि श्वे० कर्मप्रकृति चूर्णिकारके सामने कषायप्राभृतचूर्णि नियमसे उपस्थित रही है । दूसरे श्वे० कर्मप्रकृतिकी इस चूर्णिमें 'गोपुच्छागिती ते' पाठका पाया जाना भी इस तथ्यका समर्थन करनेके लिये पर्याप्त कारण है । हमने श्वे० कर्मप्र कृति मूल और उसकी चूर्णिका यथासम्भव अवलोकन किया है, पर हमें उक्त स्थलकी चूर्णिको छोड़कर अन्यत्र कहीं भी इस तरहका पाठ उपलब्ध नहीं हुआ जिसमें निषेक क्रमसे स्थापित प्रदेश रचनाके लिये गोपुच्छाकी उपमा दी गई हो । तीसरे उक्त दोनों चूर्णियों में रचनाके जिस क्रमको स्वीकार किया गया है उससे भी इसी तथ्यका समर्थन होता है कि श्वे० कर्मप्रकृतिचूर्णिके लेखकके सामने कषायपाहुडसुत्तकी चूर्णि नियमसे रही है । इस प्रकार दोनों चूर्णियोंके उपशामना अधिकारपर दृष्टिपात करनेसे यह स्पष्ट हो जाता है कि वृषभ आचार्य न तो कर्मप्रकृतिचूर्णिके कर्ता ही हैं और न ही कषायप्राभृतचूर्णिको निबद्ध करते समय उनके सामने श्वे० कर्मप्रकृतिमूल ही उपस्थित रहा है । उन्होंने अपनी चूर्णिमें 'एसा कम्मपयडीसु' लिखकर जिस कर्मप्रकृतिका उल्लेख किया है वह प्रस्तुत कर्मप्रकृति न होकर अग्रायणीय पूर्वकी पाँचवीं वस्तुका चौथा अनुयोगद्वार महाकम्मपयडिपाहुड ही है । उसके २४ अवान्तर अनुयोगद्वारोंको ध्यानमें रखकर आ० यतिवृषभने 'कम्मपयडीसु' इस प्रकार बहुवचनका निर्देश किया है ] | ४३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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