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________________ पौरपाट (परवार) अन्वय १. जैन जातियोंके प्रारम्भ का काल भारतवर्ष अगणित जातियोंका देश है। भगवान् महावीरके कालमें यह जाति परम्परा प्रचलित थी, पुराणों पर दृष्टिपात करनेसे इसका आभास नहीं मिलता। यद्यपि पुराणोंमें वंशों और कुलोंके नाम तो आते हैं, यहाँ तक की मुनियोंमें भी कुल परम्परा चालू रही है। पर पुराणोंमें प्रचलित जातियोंका उल्लेख कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होता । अभी तक आगमोंमें जितने भी उल्लेख मिलते हैं उनके अनुसार पूरे जैन संघको चार भागों में विभक्त किया गया था - मुनि, आर्यिका श्रावक और श्राविका । , जैन परम्परामें समवसरणकी व्यवस्था इतिहासातीत भगवान् आदिनाथके कालसे ही चली आ रही है। उसके अनुसार मनुष्य देव और तियंचोंके बैठने के लिये जिन बारह कोठोंकी रचना की जाती थी उनमेंसे आर्यिका और धाविकाओंके बैठनेके लिये एक ही कोटा निश्चित रहता था। इसलिये उक्त आधारोंको ध्यानमें रखकर यह तो निश्चित रूपसे कहा जा सकता है कि तीर्थंकर महावीरके कालके बाद ही जैन परम्परामें जाति व्यवस्थाको स्थान मिल सका है, इसके पूर्व वर्तमान जातियोंमेंसे कुछ जातियाँ रही भी हों तो धार्मिक दृष्टिसे उनको महत्व नहीं दिया गया। किन्तु इस परम्परामें यह जाति व्यवस्था कमसे चालू हुई इसे ठीक तरहसे समझने के लिये हमें पुराण साहित्य के अतिरिक्त अन्य जैन साहित्य के ऊपर भी दृष्टि डालनी होगी। इस अपेक्षासे सबसे पहले हमारी दृष्टि रत्नकरण्ड श्रावकाचार पर जाती है। उसके अनुसार सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति में बाधक जिन पच्चीस दोषोंका उल्लेख दृष्टिगोचर होता है, उनमें आठ मद मुख्य हैं। उनके नाम हैं-ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, बुद्धि, तप और शरीर ।" इसका अर्थ है कि जिस कालमें स्वामी समन्तभद्रने रत्नकरण्डभावकाचारकी रचना की है उस काल तक जैन समाज में भी जाति प्रथा चालू हो गई थी, तभी तो उक्त आठ मदों में जातिमद और कुल मदको अलगसे स्थान दिया गया है। जिसे आठ मदोंमें जाति जैसा कि पहले लिख आये है कि कुल परम्परा तो पुराण कालमें हो चालू थो मद कहा गया है, सम्भवतः उससे मतलब ब्राह्मणत्व आदि जातियोंसे हो सकता है, क्योंकि मनुस्मृति आदि ब्राह्मण साहित्यके ऊपर दृष्टिपात करनेसे यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि जैनधर्म में जिन ब्राह्मणादि वर्णोंको कर्मसे स्वीकार किया गया है उन्हें ही ब्राह्मण धर्ममें जातिरूपसे स्वीकार कर लिया गया था। फलस्वरूप में ब्राह्मण हूँ, उच्च जातिका है, यह क्षत्रिय है, हमसे हलकी जातिका है' इत्यादि व्यवहार लोकमें चालू हो गया था। जैनधर्म भी उससे अछूता नहीं बच सका। यही कारण है कि रत्नकरण्डथावकाचार में कुल मदके समान जातिमदका भी निषेध किया गया है । मूलाचार पिण्डशुद्धि अधिकार पर दृष्टिपात करनेसे भी उक्त अर्थकी पुष्टि होती है। उसमें लिखा है कि जाति, कुल, शिल्प, कर्म, तप-कर्म और ईश्वरपना इनकी आजीव संज्ञा है । इनके आधारसे आहार प्राप्त करना आजीव नामका दोष है ।" १. रत्नकरण्ड श्रावकाचार श्लोक पृ० २५ । २. मू० पि० अ० गाथा ३० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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