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________________ ३३६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ (२) यह दोनों चूणियोंका एक-एक , उदाहरण है जो इस तथ्यकी पुष्टि करनेके लिये पर्याप्त है कि दोनों चूर्णियोंका कर्ता एक व्यक्ति नहीं हो सकता। आगे भी हम इन दोनों चूर्णियोंमें मतभेदके कतिपय उदाहरण उपस्थित कर रहे हैं जिनसे इस तथ्यकी पुष्टिमें और भी सहायता मिलेगी। श्वेताम्बर कर्मप्रकृति चूणिके इस उल्लेखपर दृष्टिपात कीजिये ___इदाणों सम्मदिट्टिस्स उव्वलमाणितो भण्णंति-'अहाणियट्ठिमि छत्तोसाए' अहसद्दी अण्णाहियारे । किपण्णं ? भण्णई-कालओ अन्तमुहुत्तेण उव्वलति त्ति । तं दरसेति-अणियट्ठिखव गो छत्तीसं कम्मपगतीतो एएणेव विहिणा उव्वलेति । –कर्मचूर्णि । __आशय यह है कि अनिवृत्तिकरण नौवें गुणस्थानमें जिन ३६ प्रकृतियोंकी क्षपणा होती है वह उद्वेलना संक्रमपूर्वक ही होती है। इसीप्रकार इस चर्णिमें अनन्तानबन्धी चतष्ककी विसंयोजना तथा मि सम्यग्मिथ्यात्वकी क्षपणा भी उद्वेलनापूर्वक स्वीकार की गई है। जबकि कषायप्राभूत चूणिमें इस बातका अणुमात्र भी उल्लेख दृष्टिगोचर नहीं होता। (३) कषायप्राभृत चूणिके अनुसार जो जीव कषायोंकी उपशामना करता है वह अनिवृत्तिकरण गणस्थानमें लोभ संज्वलनके मात्र पूर्वस्पर्धकोंसे ही सूक्ष्म कृष्टियोंकी रचना करता है। उल्लेख इस प्रकार है ___ से काले विदियतिभागस्त पढमसमए लोभसंज्वलणाणुभागसंतकम्मस्स जं जहण्णफद्दयं तस्स हेट्टदो अणुभागकिट्टीओ करेदि । किन्तु श्वेताम्बर कर्मप्रकृति चूर्णिमें पूर्वस्पर्धकोसे अपूर्व स्पर्धकोंकी रचनाका विधान कर पुनः उनसे कष्टियोंके करनेका विधान किया गया है । यथा अस्सकनकरणद्धाते वट्टमाणो लोभसंज्वलनस्स पुव्वफद्दयेहितो समते-समते अपुव्वाणि फड्डगाणि करेति । "जावएणठाणं न पावति ताव पुव्वफड्डगं अपुव्वफड्डगस्स रूपेणेव अणुभागसंतकम्मं आसि, तीर पढमसमते किट्टीओ पकरेइ।। (४) उक्त पंडितजीका यह ख्याल है कि आचार्य यतिवृषभने अपनी चूणि लिखते समय श्वेताम्बर कर्मप्रकृति और उसकी चूर्णिका पदानुसरण किया है सो यह बात नहीं है। कारण कि कषायप्राभूत और उसकी चर्णिमें झीनाझीन अधिकार और स्थितिक या स्थित्यंतिक आदि ऐसे अनेक अनुयोगद्वार है जो श्वे कर्मप्रकृति और उसकी चूर्णिमें नाममात्रको भी उपलब्ध नहीं होते। अतः यह स्पष्ट है कि उक्त विषयोंपर चुणि लिखते समय जिन गुरुओं और मूल पूर्व आगमको आधार बनाकर उन्होंने उन विषयोंपर चूणिसूत्र लिखे हैं, उन्हीं गुरुओं और पूर्व आगमको मूल आधार बनाकर ही उन्होंने शेष चणि सूत्रोंकी भी रचना की है। अत. कसायपाहडसुत्तकी उक्त प्रस्तावनामें स्व. श्री पं० हीरालालजी द्वारा यह स्वीकार करना भी हास्यास्पद प्रतीत होता है कि 'यतिवृषभके सम्मुख षट्खण्डागमके अतिरिक्त जो दूसरा आगम उपस्थित था वह है कर्म साहित्यका महान ग्रन्थ कम्मपयडी । इसके संग्रहकर्ता या रचयिता शिवशर्मा नामके आचार्य है और उस ग्रन्थ पर श्वेताम्बराचार्योंकी टीकाके उपलब्ध होनेसे अभी तक यह श्वेताम्बर सम्प्रदायका ग्रन्थ समझा जाता रहा है किन्तु हालमें ही उसकी चूणिके प्रकाश में आनेसे तथा प्रस्तुत कषायपाहुडकी चूर्णिका उसके साथ तुलनात्मक अध्ययन करनेसे इस बातमें कोई सन्देह नहीं रह जाता है कि कम्मपयडी एक दिगम्बर परम्पराका ग्रन्थ है और अज्ञात आचार्यके नामसे मुद्रित और प्रकाशित उसकी चूणि भी एक दिगम्बराचार्य इन्हीं यतिवृषभकी ही कृति है" । पृ० ३१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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