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________________ चतुर्थ खण्ड : ३३५ प्रायको स्पष्ट करनेके लिये आचार्य यतिवृषभने देशोपशामनाके स्वरूपपर प्रकाश डालनेके लिये 'एसा कम्मपयडीसु' लिखकर श्वेतांबर कर्मप्रकृतिकी ओर इशारा किया होगा इसे कोई भी परीक्षक स्वीकार नहीं करेगा। ___स्व. श्री पं० हीरालालजीने कषायपाहुड़सुत्तकी प्रस्तावनामें एक बात यह भी स्वीकार की है कि श्वेतांबर आम्नायमें प्रसिद्ध शतक, सप्ततिका और कर्मप्रकृति चूणिके कर्ता भी आचार्य यतिवृषभ ही हैं, सो उनका ऐसा लिखना भी युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता। यद्यपि इस समय शतक और सप्ततिकाकी चूर्णियाँ तो हमारे सामने नहीं है, कर्मप्रकृतिकी चूणि अवश्य हो हमारे सामने है। अतः उसके आधारसे ही यहाँ इस बातका विचार किया जाता है कि श्वेतांबर कर्मप्रकृति चूणिके लेखक यतिवृषभाचार्य है या नहीं । यथा (१) दिगम्बर परम्परामें संक्रमको बन्धका एक प्रकार मानकर उद्वेलना प्रकृतियाँ १३ स्वीकार की गयी है-आहारकद्विक, सम्यक्त्व, मिश्र, देवगतिद्विक, नरकगतिद्विक, वैक्रियिकद्विक, उच्चगोत्र और मनुष्यगतिद्विक । (गो० क० गाथा ४१५) । किन्तु श्वेताम्बर कर्मप्रकृति चूणिमें २७ उद्वेलना प्रकृतियाँ स्वीकार की गई है। यथा-अनन्तानुबन्धी चतुष्क, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, देवद्विक, नरकद्विक, वैक्रियिक सप्तक, आहारक सप्तक, मनुष्य द्विक और उच्चगोत्र । (कर्मप्रकृतिचूणि-प्रदेश संक्रम पत्र ९५ आदि)। (२) अपूर्वकरणमें स्थितिकाण्डकघात आदि कार्य प्रारम्भ हो जाते हैं। इसी तथ्यको ध्यानमें रखकर कषायप्राभूत चूर्णिमें स्थितिकाण्डकघातकी प्रक्रियापर प्रकाश डालते हुए दर्शनमोहनीयका जो स्थितिकाण्डकघात होता है उसमें उद्वेलना संक्रम नहीं स्वीकार करके मात्र यह उल्लेख दृष्टिगोचर होता है-- पढमट्ठिदिखंडयं बहुअं, विदियट्ठिदिखंडयं, तदियं ट्ठिदिखंडयं विसेसहीणं । एदेण कमेण ट्ठिदिखंडय सहस्सेहि बहुएहिं गदेहिं अपुव्वकरणद्धाए चरिमसमयं पत्तो। (भा० १३ पृ० ३६-३७) किन्तु इसके स्थानमें इसी स्थितिकाण्डकघातको श्वेतांबर कर्मप्रकृति चूर्णिमें उद्वेलना संक्रमपूर्वक लिखा है। यथा-- अन्नं च उव्वलणालक्खणेण पठमट्ठिदिखंडयं सव्वमहन्तं । वितिय विसेसहीणं, ततिय विसेसहीणं जाव अपुन्वकरणस्स अंतिमट्ठितिखंडगं विसेसहीणं । (उपशमनाकरण अधिकार पृ० २५) यह दोनों चूर्णियोंका एक-एक उल्लेख है। इनमें से जहाँ कर्मप्रकृति चूर्णिमें दर्शन मोहनीयके स्थितिकाण्डकघातको उद्वेलना संक्रम पूर्वक स्वीकार किया गया है यहाँ कषायप्राभृतचूणि इस तथ्यको स्वीकार ही नहीं करती । इस प्रकार दोनों चणियोंका यह अन्तर उपेक्षा करने योग्य नहीं है। प्रथम कारण तो यह है कि एक तो दोनों परम्पराओंके अनुसार मिथ्यात्वकर्म उद्वेलना प्रकृति नहीं है। दूसरे इस तथ्यको कर्मप्रकृति स्वीकार करती है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये दो कर्म उद्वेलना प्रकृतियाँ होकर भी २७ प्रकृतियोंकी सत्तावाला ही मिथ्यात्वदशामें इन दोनों प्रकृतियोंकी उद्वेलना करता है। श्वेताम्बर कर्मप्रकृतिने इसे स्वीकार करते हुए लिखा है-- एवं मिच्छदिट्ठि अट्ठावीससंतकम्मितो पुव्वं सम्मत्तं एतेण विहिणा उव्वलेति । ततो सम्मामिच्छत्तं ते चेव विहिणा। इसी तथ्यको दिगम्बर परम्परा भी स्वीकारती है । यथा मिच्चे सम्मिस्साणं अधापवत्तो मुहत्तअंतो त्ति। उव्वेलणं तु तत्तो दुचरिमकंडो त्ति णियमेण ॥४१२।। गो० क. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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