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________________ ३२८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ म्हीं मूल पाठमें आम्नायके अनुसार उनका अर्थ करने में जो विसंगतियाँ उत्पन्न होती हैं या वर्तमानकालमें उत्पन्न की गई है, उनको जानकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। अस्तु, इतने विवेचनसे पूर्वश्रुतकी वाचना देनेका अधिकारी कौन है और किसको वाचना दी जानी चाहिए, यह स्पष्ट हो जाता है। ५. विषय परिचय साधारणतः धवला आदि अनेक ग्रन्थ हैं, जिनमें बारह अंग और उनके उत्तर भेदोंमें वर्णित विषयका विशद रूपसे परिचय लिपिबद्ध हुआ है। उसमें चौदह पूर्वोका भी विषय-परिचय गर्भित है। वहाँसे लेकर उसे लिपिबद्ध करना हमारा प्रयोजन नहीं है । बहुतकर जिस पूर्वका जो नाम है उसीसे पूर्वके विषयपर विशद प्रकाश पड़ जाता है । कुछ पूर्वोके नाम ऐसे अवश्य हैं, जिनसे उस-उस पूर्वमें वर्णित विषयपर विशद् प्रकाश नहीं पड़ता। मात्र इस बातको ध्यानमें रखकर प्रकृतमें कतिपय पूर्वोके विषयको २पष्ट किया जा रहा है। उदाहरणार्थ प्रथम पूर्वका नाम मात्र उत्पाद अवश्य है, परन्तु उसमें जीव, पुद्गल और काल आदि द्रव्योंमें उत्पाद, व्यय और ध्रुवपना किस प्रकार घटित होता है ? इस विषयपर सर्वांग रूपसे प्रकाश डाला गया है। दूसरा पूर्व अग्रायणीय है । यहाँ 'अन'का अर्थ मुख्य है और अयनका अर्थ मार्ग या ज्ञान है। इससे ज्ञात होता है कि इस पूर्वमें सभी अंगोंके मुख्य-मुख्य विषयका संकलन हुआ है । षट्खण्डागममें निबद्ध विषयका योनिस्थान यही पूर्व है । . पाँचवाँ ज्ञानप्रवाद पूर्व है। यद्यपि इसका मुख्य विषय पाँच ज्ञान और तीन अज्ञानका विशद विवेचन है, परन्तु प्रसंगसे इनमें पेज्ज दोस प्रमुख मोहनीय कर्मके बन्ध, उदय और सत्त्व आदिका भी सर्वांग रू पसे विवेचन किया गया है । कषायप्राभृतमें निबद्ध विषयका योनिस्थान यही पूर्व है ।" ग्यारहवाँ पूर्व कल्याणवाद है। नामके अनुसार इसमें तीर्थंकरोंके पाँच कल्याणक तथा चक्रवर्ती, बलदेव आदिके गर्भावतरण आदिका विवेचन तो हुआ ही है। साथ ही वह ग्रह, नक्षत्र आदिके चार क्षेत्र, गति आदिका भी विवेचन करता है। ___ बारहवां प्राणावाय पूर्व है। नामके अनसार इसमें प्राण-वाय और अपान वाय आदिका विवेचन तो हुआ ही है । साथ ही इसमें प्रसंगसे कायचिकित्सा, अष्टांग आयुर्वेद और विषविद्या आदिका भी विवेचन हुआ है। तेरहवाँ क्रियाविशाल पूर्व है । नामके अनुसार इसमें मोक्षकी कारणभूत शुभ आदि क्रियाका विवेचन न होकर प्रायः सभी प्रकारकी कलाओं का विवेचन हुआ है । इसमें पुरुषकी बहत्तर कला, स्त्रियोंके चौसठ गुण और छन्दनिर्माणकला आदि भी सम्मिलित हैं। लोकबिन्दुसार चौदहवाँ पूर्व है । तत्त्वार्थवार्तिक (मूल पृ० ५४) में इसका नाम त्रिलोक विन्दुसार दिया है। इसमें आठ व्यवहार, चार बीज, मोक्षगभनमें निमित्त भूत क्रिया और मोक्ष सुखका वर्णन उपलब्ध है। इसके अनुसार तीनों लोकोंके विन्दु अर्थात् अवयव या सारका भी विवेचन इसमें हुआ है । इस प्रकार कतिपय पूर्वोमें प्ररू पित विषय जानना चाहि।। १. धवला, पु० १, पृ० ११५ २. वही, पृ० ११६ ३. वही, पु० ९ पृ० १३५ ४. धवला, पु०, पृ० ११५ ५. कषायप्राभृत सूत्र, गा० १ ६. धवला, पु० १, पृ० १२२ ७. वही, पृ० १२३ ८. वही, पृ० १२३ ९. वही, पृ० १२३ १०. धवला, पु०१, पृ० १२३ टिप्पण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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