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________________ चतुर्थ खण्ड : ३२९ ६, श्रुत प्ररूपणाके दो प्रकार __ आगममें श्रुतज्ञानकी प्ररूपणा दो प्रकारसे उपलब्ध होती है-एक निवृत्त्यक्षर या स्थापनाक्षरकी मुख्यतासे और दूसरी लब्ध्यक्षरकी मुख्यतासे । इन तीनोंमें परस्पर निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है। इतना अवश्य है कि तीर्थकर महावीरकी धर्म देशनाका आप्यायन कर इंद्रभूति गौतम गणधरने जिस अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य श्रतको निबद्ध किया, वह सदा ही गुरु परम्परासे वाचना द्वारा प्राप्त होकर ज्ञानगम्य ही रहा है, पुस्तकारूढ़ कभी भी नहीं हो सका। ७. प्रथम प्ररूपणा प्रथम प्ररूपणाके अनुसार जितने मूल अक्षर और उनके संयोग हैं उतने श्रुतज्ञानके भेद हैं।' स्पष्टीकरण इस प्रकार है २७ स्वर, २३ व्यंजन और ४ अयोगवाह ये ६४ 0 तके मूल अक्षर हैं। इन्हें एक संयोगी भी कहते हैं । इनके साथ दो संयोगीसे लेकर ६४ संयोगी तक श्र तके कूल अक्षर १८४४६७४४०७३७०९५५१६५५ होते हैं । इन्हें प्राप्त करनेके लिए ६४ बार ११११ (एक-एक) इस प्रकार विरलन कर तत्पश्चात् प्रत्येक विरलन रूप १ को दूना कर परस्पर गुणित करने पर जो संख्या निष्पन्न हो, उसमेंसे एक अंकके कम करनेपर श्रुतज्ञानके उक्त संख्या प्रमाण अक्षर प्राप्त होते हैं । (१) प्रकृतमें संयोगका अर्थ दो या दोसे अधिक अक्षरोंका एक रूप परिणमन नहीं लिया गया है, क्योंकि संयोजनका यह अर्थ स्वीकार करनेपर उसमें दो अक्षरोंका संयोग, तीन अक्षरोंका संयोग इत्यादि व्यवहार करना सम्भव नहीं होगा और न दो या दोसे अधिक अक्षरोंका एक साथ उच्चारण करना हो संयोगका अर्थ लिया गया है, क्योंकि दो या दोसे अधिक अक्षरोंका एक साथ उच्चारण करना कभी भी सम्भव नहीं, अतः जितने अक्षर एक साथ मिलकर एक अर्थको कहते हैं उतने अक्षरोंका एक संयोग होता है, संयोग पदका यह अर्थ प्रकृतमें लिया गया है ऐसा यहाँ समझना चाहिए । २) प्रकृतमें दूसरी बात यह ज्ञातव्य है कि यहाँ श्रुतज्ञानके जितने अक्षर कहे गये हैं, उनकी प्ररूपणा अनुलोमविधिसे ही की गई है, क्योंकि प्रतिलोमविधिसे या अनुलोमप्रतिलोम विधिसे जो अक्षर बनते हैं, उनका अन्तर्भाव अनुलोम विधिसे परिगणित किये गये अक्षरोंमें ही हो जाता है। , (३) तीसरी बात यह ज्ञातव्य है कि प्रकृतमें संयोगका अर्थ मात्र व्यंजन अक्षरका संयोग ही इष्ट नहीं है । किन्तु जितने प्रकारके संयोगाक्षर होते है, उनमेंसे कोई संयोगाक्षर व्यंजन अक्षरोंके संयोगसे बनता है । कोई संयोगाक्षर दो या दोसे अधिक स्वरोंके संयोगसे बनता है आदि । (४) चौथी बात यह ज्ञातव्य है कि लोकमें यद्यपि अर्थपद और प्रमाणपद हो रुढ़ हैं, परन्तु इन्द्रभूति गौतम गणधरने जो अंगप्रविष्ट श्रत निबद्ध किया था, उसमें निबद्ध श्र तकी जिस पदसे परिगणना की गई है आगममें उसे मध्यम पद कहा गया है। यहाँ जिन तीन पदोंका उल्लेख किया गया है, उनमेंसे जो अर्थपद है वह अनियत अक्षरों वाला होता है, क्योंकि एक या एकसे अधिक अक्षरोंके संयोगसे निष्पन्न पद द्वारा एक अर्थ सूचित होता है, लोकमें उसकी अर्थपद संज्ञा है। प्रमाणपद आठ अक्षरोंका होता है, क्योंकि लोकमें १. वही, पु० १३, पृ० २४७ मूलसूत्र विशेषावश्यक भाष्य गाथा ४४३ ३. धवला, पु० १३, पृ० २५० २. वही पु० १३, पृ० २४८ मूलसूत्र ५, वही, पृ० २५८ ४. वही, पृ० २५१ ४२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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