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________________ चतुर्थ खण्ड : ३२७ परम्पराको दृष्टिपथमें रखकर उसकी वाचनाका क्रम भी यही है, इसकी पुष्टि दूसरे मंगलसूत्रकी व्याख्या में स्वीकार किए गए इस वचनसे भी होती है । सेस हेमिपुवीणं णमोक्कारो किण्ण कदो ? ण, तेसि पि कदो चेव, चेहि विणा चोद्दस वाणुववत्तदो । शंका - अधस्तन शेष पूर्वियोंको नमस्कार क्यों नहीं किया ? समाधान- नहीं, उनको भी नमस्कार किया ही है, क्योंकि जो अधस्तनपूर्वी जिन नहीं हुए हैं उनका चौदहपूर्वी जिन होना संभव नहीं है । इससे स्पष्ट है कि सर्वप्रथम आचारांगकी वाचना दी जाती है और इस प्रकार सूत्र पठित क्रमसे बारह अंगोंकी वाचना देते समय सबके अन्तमें सूत्र पठित क्रमसे ही उत्पाद आदि चौदह पूर्वोकी वाचना दी जाती है । इस प्रकार जो चौदहपूर्वी जिन होते हैं, उन्हींको श्रुतकेवली जिन कहा गया है । ये गिरकर मिथ्यात्वको प्राप्त तो होते ही नहीं, उस भव में असंयमको भी प्राप्त नहीं होते ।" इससे पूर्वगत श्रुतकी क्या महत्ता है यह स्पष्ट होनेके साथ उसकी वाचनाका क्रम क्या है ? यह भी स्पष्ट हो जाता है । ४. वाचनाका अधिकारी व्रती श्रावकको ग्यारह अंगोंकी वाचना दी जाय, इसमें कोई बाधा नहीं है । इतना अवश्य है कि व्रती श्रावकको सूत्रपठित क्रमसे ही वाचना देनी चाहिए, अन्यथा वाचना देने वाला आचार्य निग्रह स्थानका भागी होता है । किन्तु १४ पूर्वोकी वाचना व्रती श्रावकको तो दी नहीं जा सकती जिसने उपचरित महाव्रतोंको अंगीकार किया है, ऐसी आर्यिका को भी नहीं दी जा सकती । - धवला, पु०९, पृ० ७१ जो वाचना देने वाले आचार्यके द्वारा दीक्षित होकर महाव्रतधारी निर्ग्रन्थ दिगम्बर मुनि होते हैं वे ही १४ पूर्वोकी वाचना लेनेके अधिकारी हो सकते हैं, इन दोनों तथ्योंकी पुष्टि उस इतिहाससे भी होती है जो धवला पृष्ठ ७१ में निबद्ध है । वहाँ लिखा है कि जब आचार्य गुष्पदन्तने जीवस्थान सत्प्ररूपणाकी रचना कर और स्वयंको अल्पायु जाना, तब उन्होंने सर्वप्रथम जिनपालितको मुनि दीक्षा देकर अपना शिष्य बनाया और उसके बाद ही उन्होंने सत्प्ररूपणाके सूत्र पढ़ाकर उन्हें अपने समानधर्मा सहपाठी भूतबलि आचार्यके पास भेजा । तभी उनके द्वारा सत्प्ररूपणा प्रमुख समग्र षट्खण्डागमकी रचना होकर ज्येष्ठ शुक्ला पंचमीको वह पुस्तकारूढ़ हो सका । आगममें वाचनाके जो लक्षण उपलब्ध होते हैं, उनसे भी उक्त तथ्यका समर्थन होता है । 3 इससे मालूम पड़ता है कि वाचनाका अर्थ संकलना नहीं है, किन्तु तीर्थंकर महावीरसे लेकर गुरु-शिष्य परिपाटीका अनुसरण करते उत्तरोत्तर गुरुके द्वारा अपने-अपने शिष्यको आम्नायके अनुसार जो पाठ देकर पढ़ाया जाता है उसका नाम ही वाचना है। इससे न केवल उत्तरोत्तर मूल पाठकी सुरक्षा बनी रहती है; अपितु आम्नायके अनुसार निर्दोष अर्थ भी सुरक्षित रहा आता है । इस कालमें यद्यपि अग्रायणीय पूर्व" और ज्ञानप्रवाद पूर्व के आधारसे षट्खण्डागम और कषायप्राभृतका अध्ययन-अध्यापन भले ही प्रमुखता से चल रहा है, परन्तु उसके पीछे वाचनाका बल न होनेसे उनके कहीं १. धवला पु० ९, पृ० ७१ ३. सर्वार्थसिद्धि, अ० ९, सू० २५ ५. धवला पु० ९, पृ० १३४, मूल सूत्र ४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only २. पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय, श्लोक १८ ४. धवला, पु० १, पृ० ६६ ६. कषाय प्राभृत सूत्र, गाथा १ www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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