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________________ चतुर्थ खण्ड : ३१९ मना । उनमेंसे सर्वकरणोपशामनाके अन्य दो नाम हैं-गुणोपशामना और प्रशस्तोपशामना। तथा जो देशकरणोपशामना है उसके अन्य दो नाम हैं-अगणोपशामना और अप्रशस्तोपशामना। प्रकृत अनुयोगद्वारमें इसी अप्रशस्तोपशामनाका विवेचन किया गया है। उसके अर्थपदका निरूपण करते हुए बतलाया है कि अप्रशस्त उपशामनाके द्वारा उपशमको प्राप्त हआ जो प्रदेशाग्र अपकर्षणके लिए भी शक्य है, उत्कर्षणके लिए भी शक्य है तथा अन्य प्रकृतिमें संक्रमणके लिए भी शक्य है, किन्तु केवल उदयावलिमें प्रविष्ट करानेके लिए शक्य नहीं है, वह अप्रशस्तोपशामना है। .विपरिणाम उपक्रम-इसके प्रकृति, स्थिति आदिके भेदसे चार भेद हैं। उसमें भी इन चारोंको देशविपरिणामणा और सर्वविपरिणामणा इस प्रकार दो-दो प्रकारका बतलाया है। १०. उदय-प्रकृतमें कर्मउदयका प्रकरण है ऐसा लिखकर उसके प्रकृति उदय आदि चार भेद किये हैं और स्वामित्व आदिके द्वारा इसका विशेष व्याख्यान किया है। ११. मोक्ष-मोक्ष पदका निक्षेप करके कर्मद्रव्यमोक्षके प्रकृतिमोक्ष आदि चार भेदोंका इस अनुयोगद्वारमें विवेचन किया है। १२. संक्रम-संक्रम पदका निक्षेप करके प्रकृतमें कर्मसंक्रमका निरूपण करते हुए उसका प्रकृतिसंक्रम आदि चार प्रकारसे निरूपण किया है। एक प्रकृतिका अन्य प्रकृतिमें संक्रमित होना यह प्रकृतिसंक्रम है। यहाँ इतना विशेष है कि मूल प्रकृतिमें संक्रम नहीं होता है । साथ ही दर्शनमोहनीयका चारित्रमोहनीयमें और चारित्रमोहनीयका दर्शनमोहनीयमें तथा चार आयओंका परस्परमें संक्रम नहीं होता। शेष उत्तर सजातीय प्रकृतियों में संक्रम होता है। स्थिति उत्कर्षण, स्थितिअपकर्षण तथा अन्य प्रकृतिको प्राप्त स्थितिका नाम स्थितिसंक्रम है । अनुभाग संक्रम भी इसी तरह अनुभागकी अपेक्षा तीन प्रकारका है। प्रदेशसंक्रमके पाँच भेद हैं-उद्वेलना, विध्यात, अधःप्रवृत्त, गुण और सर्व। जहाँ जिन प्रकृतियोंका बन्ध सम्भव है वहाँ उन प्रकृतियोंका बन्ध होते हुए और नहीं होते हुए अधःप्रवृत्तसंक्रम होता है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व अबन्ध प्रकृतियोंके लिए यह नियम नहीं है। जिन प्रकृतियोंका जहाँ नियमसे बन्ध सम्भव नहीं है वहाँ उन प्रकृतियोंका विध्यातसंक्रम होता है। यह भी नियम मिथ्यादृष्टिसे लेकर अप्रमत्त गुणस्थानतक ही ध्रुव स्वरूपसे है । अप्रमत्त गुणस्थानसे आगे बन्धरहित प्रकृतियोंका गुणसंक्रम और सर्वसंक्रम होता है। यह कथन अप्रशस्त प्रकृतियोंकी अपेक्षासे किया है। प्रशस्त प्रकृतियोंकी अपेक्षा तो उपशम और क्षपकश्रेणिमें उनका भी अधःप्रवृत्त संक्रम होता है। उद्वेलना संक्रम मात्र १३ प्रकृतियोंका होता है। १३. लेश्या-इस अनुयोगद्वारमें लेश्याका निक्षेप करके द्रव्य और भावलेश्याका स्वरूप बतलाया है कि बंधे हए पदगल स्कन्धोंके चक्षद्वारा ग्रहण करने योग्य वर्णको द्रव्यलेश्या कहते हैं। तथा मिथ कषाय और योगसे उत्पन्न हुए जीवके संस्कारको भावलेश्या कहते हैं । १४. लेश्याकर्म-मारना, विदारना, दया करना आदि लेश्याकर्म है । इस प्रकार इस अनुयोगद्वारमें छहों लेश्याओंके अपने अपने कर्मका निर्देश किया है। १५. लेश्यापरिणाम-कौन लेश्याएँ किस स्वरूपसे किस वृद्धि या हानिद्वारा परिणमन करती हैं इस बातका विशेष ज्ञान इस अनुयोगद्वारमें कराया गया है। उदाहरणार्थ कृष्ण लेश्या में संक्लेशवृद्धि स्वस्थानमें ही होती है । संक्लेशहानि स्वस्थानमें तो होती ही है। इस द्वारा नील लेश्यामें भी गमन होता है इसलिए वह परस्थानमें जानेसे भी सम्भव है । इसी प्रकार सर्वत्र जान लेना चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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