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________________ ३२० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्रो अभिनन्दन-ग्रन्थ १६. सातासात-इस अनुयोगद्वारमें साता और असाताका विशेष व्याख्यान करते हए प्रत्येकके दो दो भेद बतलाये हैं । यथा-एकान्त सात और अनेकान्त सात । एकान्त असात और अनेकान्त असात । जो साता या असाता कर्म जिस रूपमें बँधता है, बिना परिवर्तन के उसका उसी रूपमें भोगा जाना एकान्त सात और एकान्त असातकर्म है । तथा इससे विपरीत अनेकान्त सात और अनेकान्त असातकर्म है।। १७. दीर्घ-हस्व-कर्म प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशके भेदसे चार प्रकारका है । उसका बन्ध, उदय और सत्त्वका आश्रय कर दीर्घ-हस्वका विचार इस अनुयोगद्वारमें किया गया है। उदाहरणार्थ मूल प्रकृतियोंकी अपेक्षा आठ कर्मोका बन्ध होनेपर दीर्घबन्ध संज्ञा है और इससे कमका बन्ध होनेपर ह्रस्वबन्ध संज्ञा है। १८. भवधारणीय-भवका विचार करते हुए उसे तीन प्रकारका बतलाया है-ओघभव, आदेशभव और भवग्रहणभव । आठ कर्म या आठ कर्मोसे उत्पन्न हुए परिणामको ओघभव कहते हैं। चार गति नामकर्म और उनसे उत्पन्न हुए परिणामको आदेशभव कहते हैं। यह चार प्रकारका है-नरकभव, तिर्यञ्चभव, मनुष्यभव और देवभव । भुज्यमान आयुके निर्जीर्ण होनेके बाद अपूर्व आयुके उदयके प्रथम समयमें उत्पन्न हुए व्यञ्जनसंज्ञावाले जीव परिणामको अथवा पूर्व शरीरके परित्याग पूर्वक उत्तर शरीरके ग्रहण करनेको भवग्रहण कहते है। १९. पुद्गलात्त-इसका निक्षेप निरूपणके बाद स्वरूपका कथन करते हुए बतलाया है कि आत्मसात् किये गये पुदगलोंकी पुद्गलात्त संज्ञा है। वे छह प्रकारसे आत्मसात् किये जाते हैं। यथा-ग्रहणसे, परिणामसे, उपभोगसे, आहारसे, ममत्वसे और परिग्रहसे । हाथ या पैरसे जो दण्ड आदि पुद्गल ग्रहण किये जाते हैं वे ग्रहणसे आत्त पुद्गल कहलाते हैं । मिथ्यात्व आदि परिणामोंके द्वारा जो पुदगल अपने किये जाते हैं वे परिणामसे आत्त पुद्गल कहे जाते हैं। जो गन्ध और ताम्बूल आदि पुद्गल उपभोगरूपसे अपने किये जाते हैं वे उपभोगसे आत्त पुद्गल कहलाते हैं। भोजन-पान आदिके द्वारा जो पुदगल अपने किये जाते हैं वे आहारसे आत्त पुद्गल कहे जाते हैं । जो पुद्गल अनुरागसे गृहीत होते हैं वे ममत्वसे आत्त पुद्गल कहलाते हैं तथा जो आत्माधीन पुद्गल हैं वे परिग्रहसे आत्त पुद्गल कहलाते हैं ।। २०. निधत्त-अनिधत्त-इसका विवेचन करते हुए बतलाया है कि जो प्रदेशाग्र निधत्तीकृत हैं अर्थात् उदयमें देनेके लिए शक्य नहीं है, अन्य प्रकृतिमें संक्रान्त होनेके लिए शक्य नहीं है, किन्तु अपकर्षण व उत्कर्षणके लिए शक्य है उसकी निधत्त संज्ञा है। उपशामक और क्षपकके सब कर्म अनिवृत्ति गणस्थानमें प्रविष्ट होनेपर अनिधत्त है । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करनेवालेके अनिवृत्तिकरणमें अनन्तानुबन्धीचतुष्क अनिघत्त है । शेष कर्म निधत्त व अनिधत्त है । दर्शनमोहनीयके उपशामक व क्षपकके अनिवृत्तिकरणमें दर्शनमोहनीय कर्म अनिधत्त है । शेष कर्म निधत व अनिधत्त है । २१. निकाचित-अनिकाचित-इसका विवेचन करते हए बतलाया है कि जो प्रदेशाग्र उत्कर्षणके लिए तथा अपकर्षणके लिए शक्य नहीं है, अन्य प्रकृतिमें संक्रमणके लिए शक्य नहीं है और उदय (उदयावलि)में देनेके लिए शक्य नहीं है उसकी निकाचित्त संज्ञा है । अनिवृत्तिकरणमें प्रविष्ट हुए जीवके सब कर्म अनिकाचित हैं । इसके पूर्व निकाचित और अनिकाचित दोनों प्रकारके हैं । शेष व्याख्यान निधत्त-अनिधत्तके समान है । २२. कर्मस्थिति-कर्मकी जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिकी प्ररूपणा अथवा कर्म स्थितिसे सञ्चित हुए सत्कर्मकी प्ररूपणा कर्मस्थिति कहलाती है। इसका इस अनुयोगद्वारमें विवेचन है। २३. पश्चिमस्कन्ध-अन्तिम भवकी प्राप्ति होनेपर जीवके सब कर्मोंका बन्ध, उदय, उदीरणा, संक्रमण और सत्ता इन पाँचकी प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंके आश्रयसे मार्गणा करते हुए इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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