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________________ ३१८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ इस अनुयोगद्वारकी रचना सूत्र और उनकी टीका उभयरूपसे दृष्टिगोचर होती है। सूत्र किस महाभागकी रचना है यह धवला टीकासे ज्ञात नहीं होता। ८. प्रक्रम-प्रक्रम अनेक प्रकारका है। उनमेंसे कर्मप्रक्रम प्रकृत है। प्रक्रमका अर्थ प्रचय है। कर्मपुद्गलोंका प्रचय कर्मप्रक्रम है। कर्मपुद्गल कर्मरूपसे कैसे परिणत होते हैं इसका अनेक दर्शनोंका ऊहापोह करते हुए फलितार्थरूपमें कार्यकारणपरम्पराके विषयमें न्यायशैलीसे स्वमतका प्रस्थापन कर उत्तर भेद बतलाये गये हैं-प्रकृतिप्रक्रम, स्थितिप्रक्रम और अनुभागप्रक्रम । प्रकृतिप्रक्रम में मूल तथा उत्तर किस प्रकृतिको कितना द्रव्य मिलता है, स्थितिप्रक्रममें किस स्थितिमें कितने द्रव्यका निक्षेप होता है यह बतलाकर अनुभागप्रक्रमका संक्षेपमें निरूपण किया है । इसमें अनुभागकी अपेक्षा किस वर्गणामें कितने प्रदेश होते हैं यह बतलाया है । ९. उपक्रम-नामउपक्रम, स्थापनाउपक्रम इत्यादिरूपसे उपक्रम अनेक प्रकारका है। प्रकृतमें कर्मउपक्रमका प्रकरण है। वह चार प्रकारका है-बन्धन उपक्रम, उदीरणा उपक्रम, उपशामना उपक्रम और विपरिणाम उपक्रम । प्रक्रम अनुयोगद्वार प्रकृति, स्थिति और अनुभागको प्राप्त होनेवाले कर्मोकी प्ररूपणा करता है परन्तु उपक्रम अनुयोगद्वार बन्धके द्वितीय समयसे लेकर सत्त्वरूपसे स्थित कर्मपदगलोंके व्यापारकी प्ररूपणा करता है। १. बन्धन उपक्रम-प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशके भेदसे बन्धन उपक्रम चार प्रकारका है । दूधके साथ पानीके समान जीव प्रदेशोंके साथ परस्पर अनुगत प्रकृतियोंके बन्धके क्रमकी प्ररूपणा करना प्रकृति बन्धन उपक्रम है। उन्हीं सत्वरूप प्रकृतियोंके एक समयसे लेकर सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर काल तक कर्मरूपसे रहनेकी कालकी प्ररूपणाको स्थिति बन्धन उपक्रम कहते हैं। उन्हीं सत्त्वरूप प्रकृतियोंके जीवके साथ एकताको प्राप्त हुए अनुभाग सम्बन्धी, वर्ग, वर्गणा, स्थान और अविभागप्रतिच्छेद आदिकी प्ररूपणाको अनभाग बन्धन उपक्रम कहते हैं। तथा उन्हीं प्रकतियोंके क्षपित कर्माशिक, गणितकौशिक और उनके घोलमान जीवका आश्रय कर सञ्चयको प्राप्त हुए उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशोंकी प्ररूपणाको प्रदेशबन्धन उपक्रम कहते हैं। उपक्रम अनुयोगद्वारमें इन चार प्रकारके कर्मोकी प्ररूपणा सत्कर्म प्रकतिप्राभतके अनुसार करनी चाहिए, महाबन्धके अनुसार नहीं, क्योंकि महाबन्धकी प्ररूपणा प्रथम समयमें होनेवाले बन्धको लक्ष्यमें रखकर की गई है। २. उदीरणा उपक्रम-अपक्वपाचनको उदीरणा कहते हैं । तात्पर्य यह है कि नूतन बन्धमें बन्ध समयसे लेकर एक आवलिकाल तक तो उदीरणा होती ही नहीं। साथ ही उदयावलिमें स्थित प्रदेशोंकी भी उदीरणा नहीं होती। अतएव उदयावलिमें बाहिर स्थित प्रदेशोंका उदयावलिमे देना उदीरणा हैं। यह प्रकृति उदीरणा आदिके भेदसे चार प्रकारकी है। उस सबका इस अनुयोगद्वारमें विस्तारके साथ निरूपण हुआ है। अनुभाग उदीरणाका व्याख्यान करते हुए लिखा है कि यद्यपि तियंचोंमें नीचगोत्रकी ही उदीरणा होती है एंसा सर्वत्र बतलाया है और यहाँ उनमें उच्चगोत्रकी उदीरणाकी भी प्ररूपणा की गई है सो कैसे ? इसका समाधान यह किया है कि जो तिर्यञ्च संयमासंयमको स्वीकार करते हैं उनमें उच्चगोत्रकी प्राप्ति बन जाती है । इसी प्रकार आगे यह भी बतलाया है कि नीचगोत्रकी उदीरणा एकान्तसे भवप्रत्यय होती है। तथा उच्चगोत्रकी उदीरणा गुणप्रतिपन्न जीवोंमें गुणप्रत्यय होती है और अगुणप्रतिपन्न जीवोंमें भवप्रत्यय होती है । गुणसे यहाँ संयम और संयमासंयमका ग्रहण किया है। ३. उपशामना-उपक्रम उपशामनाका निक्षेप करते हए कर्मउपशामनाके दो भेद किये हैं-करण उपशामना और अनुदीर्णोपशामना। करगोपशामनाके दो भेद है-देशकरणउपशामना और सर्वकरण उपशा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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