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________________ ज्ञान गुरुपरिपाटीले कुण्डकुन्दपुरमें पद्यनन्दि मुनिको प्राप्त हुआ और उन्होंने तीन खण्डों पर बारह हजार श्लोक प्रमाण परिकर्म नामकी एक टीका लिखी प्रकृतमें जिन पद्म नन्दि मुनिका उल्लेख किया है वे प्रातःस्मरणीय कुन्दकुन्द आचार्य ही होने चाहिए। इन्द्रनन्दिने दूसरी जिस टीकाका उल्लेख किया है वह शामकुण्ड आचार्यकृत थी वह छठे खण्डको छोड़कर पाँच खण्डों और कषायप्राभूत इस प्रकार दोनों सिद्धान्त ग्रन्थोंपर लिखी गई थी। इसका नाम पद्धति था । भाषा प्राकृत, संस्कृत तथा कानडी थी । प्रमाण बारह हजार श्लोक था । इन्द्रनन्दिने तीसरी जिस टीकाका उल्लेख किया है वह तुम्बुलूर ग्रामनिवासी तुम्बुलूर आचार्य कुठ थी। यह महाबन्ध नामक छठे खण्डको छोड़ कर दोनों सिद्धान्त ग्रन्थोंकी टीफाके रूपमें लिखी गई थी। नाम चूड़ामणि और प्रमाण चौरासी हजार श्लोक था । भाषा कानडी थी । तथा इन्द्रनन्दिने चौथी जिस टीकाका उल्लेख किया है वह तार्किकार्क समन्तभद्रद्वारा अत्यन्त सुन्दर मृदुल संस्कृत भाषामें महाबन्धको छोड़ कर शेष पाँच खण्डपर लिखी गई थी। उसका प्रमाण ४८ हजार श्लोक था । चतुर्थ खण्ड : ३१५ सबसे पहले पट्खण्डागम के प्रथम यह तो स्पष्ट है कि इन्द्रनन्दिने ये चार टीकाएँ हैं जिनका उल्लेख इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतार में किया है किन्तु धवला टीका लिखते समय वीरसेन स्वामीके समक्ष आचार्य कुन्दकुन्द रचित परिकर्मको छोड़कर अन्य तीन टीकाएं उपस्थित थीं यह धवला टीकासे ज्ञात नहीं होता । उत्तर कालमें इनका क्या हुआ यह कहना बड़ा कठिन है। परिकर्म भी वही है जिसका इन्द्रनन्दिने परिकर्म टीकाके रूपमें उल्लेख किया है यह कहना भी कठिन है। धवला टीका वर्तमान समय में हमारे समक्ष षट्खण्डागमके प्रारम्भके पाँच खण्डों पर लिखी गई एकमात्र धवला टीका ही उपलब्ध है । इसकी रचना सिद्धान्तशास्त्र, छन्दशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र, व्याकरणशास्त्र और प्रमाणशास्त्र के पारगामी तथा भट्टारक पदसे समलंकृत वीरसेन आचार्य ने की है। यह प्राकृत संस्कृत भाषामें लिखी गई है। यह तो धवला टीकासे ही जात होता है कि पट्खण्डागमसे प्रथम खण्ड जीवस्थानपर यह टीका १८ हजार श्लोक प्रमाण है और चौथे वेदनाखण्डपर १६ हजार श्लोक प्रमाण है किन्तु इसका पूरा प्रमाण ७२ हजार श्लोक बतलाया है। इससे विदित होता है कि दूसरे, तीसरे और पांचवें खण्डको मिला कर तीन खण्डों तथा निबन्धन आदि १८ अनुयोगद्वारोंपर सब मिला कर इसका परिमाण ३८ हजार श्लोक है। यहाँ यह निर्देश कर देना आवश्यक प्रतीत होता है कि निबन्धन आदि १८ अनुयोगद्वारोंपर आचार्य पुष्पदन्त भूतबलि कृत सूत्ररचना नहीं है । इसलिए वर्गणाखण्ड के अन्तिम सूत्रको देशामर्थक मानकर इन अठारह अनुयोगद्वारोंका विवेचन आचार्य वीरसेनने स्वतन्त्ररूपसे किया है। इसका 'धवला' यह नाम स्वयं आचार्य वीरसेनने निर्दिष्ट किया नहीं जान पड़ता । यह टीका वद्दिग उपनामधारी अमोघवर्ष ( प्रथम ) के राज्य के प्रारम्भकालमें समाप्त हुई थी और अमोमवर्षकी एक उपाधि 'अतिशय धवल' भी मिलती है । सम्भव है इसीको ध्यान में रखकर इसका नाम धवला रखा गया हो। यह धवल पक्षमें पूर्ण हुई थी, इस नामकरणका यह भी एक कारण हो सकता है । धवला टीकाका प्रमाण बहुत अधिक है । साथ ही उसमें षट्खण्डागमके पाँच खण्डोंमें प्रतिपादित विषयका और निबन्धनादि अठारह अनुयोगद्वारोंका विस्तारसे विवेचन किया गया है, इसलिए यहाँ उसमें प्रतिपादित सभी विषयों का सांगोपांग परिचय कराना सम्भव नहीं है । यहाँ तो मात्र उसको शैलीका उल्लेख करके संक्षेपमें उसका जो भी परिचय कराना इष्ट माना जा सकता है, यह पट्खण्डागमका परिचय कराते समय लिख ही आये हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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