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________________ ३१६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ मंगल, निमित्त, हेतु, परिमाण, नाम और कर्ताका निर्देश करनेके बाद व्याख्यान करनेकी पद्धति पुरानी है । श्री वीरसेन आचार्यने धवला टीकाका प्रारम्भ करते समय इसी पद्धतिको स्वीकार कर षट्खण्डागमके प्रतिपाद्य विषयका विवेचन किया है । यहाँ यह प्रश्न होता है कि जीवस्थानके प्रारम्भमें जब इस पद्धतिका विवेचन कर दिया गया तब फिर वेदनाखण्डका प्रारम्भ करते समय इस पद्धतिका पुनः अनुसरण क्यों किया गया ? समाधान यह है कि जीवस्थान खण्डका संकलन अंग-पूर्वसम्बन्धी प्रारम्भके किसी एक अधिकारसे नहीं हुआ है। यही कारण है कि आचार्य पुष्पदन्त-भूतबलिने इस खण्डके मूलस्रोतका उल्लेख स्वयं अपनी कृतिमें नहीं किया। किन्तु षट्खण्डागमका प्रथम खण्ड जीवस्थान है यह जानकर आचार्य वीरसेनने अपनी टीकाके प्रारम्भ में उक्त पद्धतिका स्पष्टीकरण किया । परन्तु वेदनाखण्डका प्रारम्भ आग्रायणीय पूर्व की चयनलब्धि वस्तुके महाकर्मप्रकृति प्राभूतके कृति नामक प्रथम अधिकारसे हुआ है और इस तथ्यका स्पष्टीकरण स्वयं आचार्य पुष्पदन्त-भूतबलिने किया है, इसलिए आचार्य वीरसेनको उसका विवेचन करते समय भी पुनः उक्त पद्धतिका स्पष्टीकरण करना पड़ा। षट्खण्डागममें विविध विषयोंका विवेचन करते समय १४ गुणस्थान और १४ मार्गणाओंका आश्रय लिया गया है। कहीं कहीं चौदह जीवसमासोंके आश्रयसे भी प्रकृत विषयका विवेचन हुआ है । प्रश्न यह है कि यहाँ चौदह मार्गणाओमें काय, योग और वेद पदसे किसका ग्रहण हुआ है-भावमार्गणाका या द्रव्यमार्गणाका ? क्योंकि अर्वाचीन साहित्यमें कहीं-कहीं कायपदसे औदारिकादि शरीरोंका, योगपदसे द्रव्य मन, वचन और कायकी क्रियाका तथा वेदपदसे द्रव्यवेदका ग्रहण किया गया है, इसलिए यह प्रश्न होना स्वाभाविक है कि सिद्धान्त ग्रन्थोंमें और तदनुसारी गोम्मटसार प्रति ग्रन्थोंमें इन पदोंसे किनका ग्रहण हआ है ? इस प्रश्नके समाधान स्वरूप सत्प्ररूपगाके दूसरे सूत्रमें आये हुए ‘इमाणि' पदकी व्याख्या करते हुए आचार्य वीरसेन लिखते हैं 'इमानि' इस पदसे प्रत्यक्षीभूत मावमार्गणास्थानोंका ग्रहण करना चाहिए, द्रव्यमार्गणाओंका नहीं, क्योंकि द्रव्यमार्गणाएँ देश, काल और स्वभावकी अपेक्षा दूरवर्ती हैं। यहाँ षटखण्डागममें अन्य मार्गणाओं के समान काय, योग और वेद ये तीनों भी भावमार्गणाऐं ही ली गई हैं इसका निर्णय क्षुल्लकबन्धसे स्वामित्वानुयोगद्वारके सूत्र १५ से लेकर ३ः क्रमांक तकके सूत्रोंसे भले प्रकार हो जाता है। इसी प्रसंगसे गतिमार्गणामें 'मनुष्यनी' पद भी विचारणीय है। कुछ भाई ऐसा मानते हैं कि जीवस्थान सत्प्ररूपणाके ९३ संख्याक सूत्र में 'संयत' पद नहीं है, क्योंकि वह सूत्र द्रव्यस्त्रियोंको लक्ष्यमें रखकर रचा गया है । किन्तु उनकी इस मान्यताका निषेध इसी सूत्रकी धवला टीकासे हो जाता है। उस द्वारा जहाँ उक्त सूत्रके आधारसे सम्यग्दृष्टियोंकी स्त्रियोंमें उत्पत्तिका निषेध किया है वहाँ उसी सूत्रके आधारसे 'मनुष्यनी' पदका अर्थ द्रव्यस्त्री नहीं है यह भी स्पष्ट कर दिया गया है । गतिमार्गणामें जीवकी नोआगमभाव पर्याय ली गई है, शरीर नहीं यह क्षुल्लकबन्ध-स्वामित्व अनुयोगद्वारके गतिमार्गणाका विवेचन करनेवाले सूत्रोंसे तथा वर्गणाखण्डके १५वें सूत्रसे भी भली-भाँति सिद्ध है । अतएव गतिमार्गणामें मनुष्योंके सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यनी और अपर्याप्त मनुष्य ये जो चार भेद किये हैं वे जीवविपाकी मनुष्यगति, वेदनोकषाय और पर्याप्त-अपर्याप्त नामकर्मके उदयमें होनेवाली नोआगमभावपर्यायको ध्यानमें रखकर ही किये गये हैं, ऐसा यहाँ जानना चाहिए। गोम्मटसार कर्मकाण्डके उदय प्रकरण (गाथा २९८ से ३०१) का सम्यक् अवलोकन करने पर भी यही ज्ञात होता है कि ये भेद उक्त प्रकृतियोंको ध्यानमें रखकर ही किये गये हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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