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________________ ३१४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ स्थानसंज्ञाका कथन करते हए बतलाया है-चारों घातिकर्मोका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध चतुःस्थानिक होता है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध चतुःस्थानिक, त्रिस्थानिक, द्विस्थानिक और एकस्थानिक होता है । जघन्य अनुभागबन्ध एकस्थानिक होता है। अजघन्य अनुभागबन्ध विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक होता है । चार अघाति कर्मोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध चतुःस्थानिक होता है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध चतुःस्थानिक, त्रिस्थानिक और द्विस्थानिक होता है। जघन्य अनुभागबन्ध विस्थानिक होता है। अजघन्य अनुभागबन्ध द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक होता है। ___ आगे सर्वबन्ध और नोसर्वबन्ध आदि १० अनुयोगद्वारोंका निर्देश करके स्वामित्वका विचार करते हुए बतलाया है कि इसको समझनेके लिए प्रत्ययानुगम, विपाकदेश तथा प्रशस्ताप्रशस्तप्ररूपणा ये तीन अधिकार ज्ञातव्य है । विवरण इस प्रकार है प्रत्ययानुगमका विचार करते हुए कर्मबन्धके मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग ये चार प्रत्यय कहे है । उनमेंसे छह कर्म मिथ्यात्वप्रत्यय, असंयमप्रत्यय और कषायप्रत्यय होते हैं। वेदनीयकर्म मिथ्यात्वप्रत्यय, असंयमप्रत्यय, कषायप्रत्यय और योगप्रत्यय होता है। तात्पर्य यह है कि वेदनीयका केवल योगके निमित्तसे भी बन्ध होता है, इसलिए उसके बन्धके हेतु चार कहे हैं। किन्तु ज्ञानावरणादि छह कर्मोका केवल योगके निमित्तसे बन्ध नहीं होता, इसलिए उनके बन्धके हेतु तीन कहे हैं। यहाँ इतना विशेष जानना च हिए कि पूर्व पूर्व हेतुके सद्भावमें आगे आगेके हेतु होते ही हैं। किन्तु आगे आगेके हेतुके सद्भावमें पूर्व पूर्वके हेतु होते भी हैं और नहीं भी होते । यहाँ आयुकर्मका बन्ध किस प्रत्ययसे होता है इसका निर्देश नहीं किया। विपाकदेशका विचार करते हुए छह कर्मोंको जीवविपाकी, आयुकर्मको भवविपाकी तथा नामकर्मको जीवविपाकी, पुद्गलविपाकी और क्षेत्रविपाकी बतलाया है। प्रशस्ताप्रशस्तप्ररूपणाका विचार करते हुए चार घातिकर्मोको अप्रशस्त तथा अघाति कर्मोंको प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों प्रकारका बतलाया है।। इस प्रकार स्वामित्वके लिए उपयोगी इन तीन अधिकारोंका प्ररूपण कर बादमें स्वामित्व आदि शेष अधिकारोंका तथा १३ अधिकारों द्वारा भुजगारका, ३ अधिकारों द्वारा पदनिक्षेपका और १३ अधिकारों द्वारा वृद्धिका विचार किया है । तथा सबके अन्तमें अध्यवसानसमुदाहार और जीवसमुदाहारका अपने अवान्तर अधिकारोंके आश्रयसे कथन कर मलप्रकृतिअनभागबन्ध प्ररूपणा समाप्त की है। उत्तरप्रकृति अन प्ररूपणाका विचार भी इसी विधिसे किया है। मात्र वहाँ मूल प्रकृतियोंके स्थानमें उत्तर प्रकृतियोंके आश्रयसे यह प्ररूपणा की है। ४प्रदेशबन्ध-महाबन्धका चौथा भाग प्रदेशबन्ध है। इसमें प्रदेशबन्धके क्रमका निर्देश करते हए बतलाया है कि सुख-दुःखके निमित्तसे वेदनीयकर्मकी अधिक निर्जरा होती है, इसलिए इसे सबसे अधिक प्रदेश मिलते हैं । उसके बाद स्थितिबन्धके प्रतिभागके अनुसार मोहनीय आदि कर्मोंको प्रदेश मिलते हैं । इस प्रकार इस अनुयोगद्वारमें प्रदेशबन्धका सांगोपांग विचार किया गया है। अनुपलब्ध चार टीकाएँ षट्खण्डागमका समस्त जैन वाङ्मयमें जो महत्त्वपूर्ण स्थान है और उनमें जीवसिद्धान्त तथा कर्मसिद्धान्तका जैसा विस्तारसे सांगोपांग विवेचन किया गया है उसे देखते हुए इतने महान् ग्रन्थ पर सबसे पूर्व आचार्य वीरसेनने ही टीका लिखी होगी यह बुद्धिग्राह्य प्रतीत नहीं होता । इस दृष्टिसे इन्द्रनन्दिके श्रुतावतारपर दृष्टिपात करनेसे विदित होता है कि सर्व प्रथम षट्खण्डागम और कषायप्राभृत इन दोनों सिद्धान्तोंका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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