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________________ चतुर्थखण्ड : ३११ मूलप्रकृतिस्थितबन्धकी प्ररूपणा में ज्ञानावरणादि आठ मूलप्रकृतियोंका अवलम्बन लिया गया है और उत्तरप्रकृतिस्थितिबन्धकी प्ररूपणामें मूलप्रकृतियों के अवान्तर भेदोंको अवलम्बन बनाया गया है। स्थितिबन्धस्थानका कथन करते समय चौदह जीवसमासोंमें स्थितिबन्धस्थानोंका, संक्लेशविशुद्धिस्थानोंका और स्थितिबन्धका अल्पबहुत्व बतलाया गया है। निषेकप्ररूपणाका अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा इन दो अधिकारोंका आलम्बन लेकर विचार किया गया है। विवक्षित निषेकसे समनन्तर स्थिति में स्थित निषेकमें कितनी हानि होती है इसका विचार अनन्तरोपनिषा अधिकार द्वारा किया गया है तथा विवक्षित निषेकसे पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जानेपर कितनी हानि होती है इसका विचार परम्परोपनिधा अधिकार द्वारा किया गया है । आबाधाका विवेचन करते हुए बतलाया है कि मोहनीयका सत्तर कोटाकोड़ी सागर स्थितिबन्ध होने पर सात हजार वर्षप्रमाण आबाधा प्राप्त होती है। आबाधाका विचार इसी अनुपात से सर्वत्र करना चाहिए। मात्र अन्तः कोड़ाकोड़ी प्रमाण स्थितिबन्ध होनेपर अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा प्राप्त होती है । आयुकर्मकी अबाधा परभवसम्बन्धी आयुका बन्ध होते समय जो भुज्यमान आयु शेष रहती है तत्प्रमाण होती है । आमाकाण्डका विवेचन करते हुए बतलाया है कि आयुके सिवा शेष सात कमौका अपने-अपने उत्कृष्ट स्थिति से लेकर पत्यके असंख्यातवें भाग कम स्थितिबन्धके प्राप्त होने तक प्राप्त स्थितियोंका एक बाधाकाण्डक होता है । अर्थात् इतनी स्थितियों में से किसी भी स्थितिका बन्ध होनेपर उन सब स्थितियों की एक समान आबाधा प्राप्त होती है। अर्थात् इतने स्थिति विकल्पोंकी अपने-अपने अनुपातसे उत्कृष्ट आबाधा प्राप्त होती है । इसके बाद इतने ही स्थितिविकल्पों की एक समय कम आबाधा होती है । इसी प्रकार यथायोग्य शेष स्थितिबन्धमें भी आवामा जाननी चाहिए। यहाँ जितने स्थितिविकल्पोंकी एक आवाधा होती है। उनकी एक आबाधाकाण्डक संज्ञा है। इसे लानेका क्रम यह है कि उत्कृष्ट आबाधाका भाग उत्कृष्ट आबाधान्यून उत्कृट स्थितिमें देनेपर एक आवाधाकाण्डका प्रमाण आता है। सब जीवसमासोंमें आवधाकाण्डकका प्रमाण इसी विधिसे प्राप्त कर लेना चाहिए। मात्र आयुकर्ममें यह नियम लागू नहीं होता, क्योंकि वहाँ स्थितिबन्धके अनुपातसे आबाधा नहीं प्राप्त होती । अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा करते हुए आबाधा, आबाधास्थान आदि के अल्पबहुत्वका निर्देश किया है। इस प्रकार स्थितिबन्धके सम्बन्धमें सामान्य प्ररूपणा करके आगे उसका अद्धाच्छेद आदि चौबीस अनुयोगद्वारों तथा भुजगार, पदनिक्षेप और वृद्धि अनुयोगद्वारोंके आश्रयसे कथन किया गया है । यह मूलप्रकृतिबन्धकी मीमांसा है। उत्तरप्रकृतिस्थितिबन्धका विचार भी इसी प्रक्रियासे किया गया है। अन्तर है तो केवल इतना ही कि मूलप्रकृतिस्थितिबन्धमें आठ मूल प्रकृतियोंके आध्यसे विचार किया गया है और उत्तरप्रकृतिस्थितिबन्ध १२० उत्तर प्रकृतियोंके आश्रयसे विचार किया गया है। यद्यपि प्रकृतियाँ १४८ है तथापि दर्शनमोहकी सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये दो अबन्ध प्रकृतियाँ हैं । पाँच बन्धनों और पाँच संपाठोंका पाँच शरीरोंमें अन्तर्भाव हो जाता है । तथा स्पर्शादिकके बीस भेदोंके स्थान में सामान्यसे स्पर्शादिक चारका ही ग्रहण किया है इसलिए २८ प्रकृतियाँ कम होकर बन्धमें १२० प्रकृतियाँ ही ली गई हैं । स्थितिबन्धके मुख्य भेद चार हैं यह हम पहले लिख आये हैं । स्थिति और अनुभाग बन्धका मुख्य कारण कयाय है। कहा भी है- द्विदि-अणुभागा कसावदी होंति । स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध कषायसे होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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