SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 349
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३१२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ यहाँ स्थितिबन्धके कारणभूत कषायोंकी कषायाध्यवसानस्थान संज्ञा बतलाई है। इन्हें ही स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान भी कहते हैं । साता और असाता वेदनीयके स्थितिबन्धके साथ अन्य कर्मोके स्थितिबन्धका प्रकार क्या है इसका निर्देश करते हुए यहाँ बतलाया है वहाँ जो ज्ञानावरणीय कर्मके बन्धक जीव हैं वे दो प्रकारके हैं-सातबन्धक और असातबन्धक । जो वे सातबन्धक जीव हैं वे तीन प्रकारके हैं-चतुःस्थानबन्धक, त्रिस्थानबन्धक और द्विस्थानबन्धक । वहाँ जो वे असातबन्धक जीव हैं वे तीन प्रकारके हैं-द्विस्थानबन्धक, त्रिस्थानबन्धक और चतुःस्थानबन्धक । सर्वविशुद्ध साताके चतुःस्थानबन्धक जीव है । त्रिस्थानबन्धक जीव सक्लिष्टतर है । द्विस्थानबन्धक जीव उनसे भी संक्लिष्टतर हैं। सर्वविशुद्ध असाताके द्विस्थान बन्धक जीव हैं। त्रिस्थानबन्धक जीव संक्लिष्टतर है । चतुःस्थानबन्धक जीव उनसे भी संक्लिष्टतर है। साताके चतुःस्थानबन्धक जीव ज्ञानावरण कर्मकी जघन्य स्थितिका बन्ध करते हैं। विस्थान बन्धक जीव ज्ञानावरण कर्मकी अजघन्यानुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करते हैं। द्विस्थानबन्धक जीव सातावेदनीयकी ही उत्कष्ट स्थितिका बन्ध करते हैं । असाताके द्विस्थान बन्धक जीव स्वस्थानकी अपेक्षा ज्ञानावरण कर्मकी जघन्य स्थितिका बन्ध करते हैं । त्रिस्थानबन्धक जीव ज्ञानावरण कर्मकी अजघन्यानुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करते हैं । चतुःस्थानबन्धक जीव असातावेदनीयकी ही उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करते हैं। यह स्थितिबन्धका प्रकरण है, अनुभाग बन्धका नहीं। इसमें जिन परिणामोंसे सब कर्मोका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है उनकी संक्लेश संज्ञा रखी है और जिन परिणामोंसे जघन्य स्थितिबन्ध होता है उनकी विशुद्धि संज्ञा रखी है । मात्र तिर्यञ्चायु, मनुष्यायु और देवायु इस नियमके अपवाद है। उन तीन आयुओंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके योग्य परिणामोंकी विशुद्धि संज्ञा और जघन्य स्थितिबन्धके योग्य परिणामोंकी संक्लेश संज्ञा रखी है । पूर्वमें जो हम महाबन्धका उद्धरण दे आये हैं उसमें साता और असातावेदनीयके किस प्रकारके अनुभागबन्धके साथ शेष कर्मोके स्थितिबन्धकी क्या प्रक्रिया है यह मिलान करके बतलाया गया है। इससे विदित होता है कि अनुभागबन्धमें जिन परिणामोंकी संक्लेश और विशुद्धि संज्ञा है, स्थितिबन्धके प्रकरणमें उनकी वे संज्ञाएँ दूसरे प्रकारसे रखी गई है। इसे विशेषरूपसे समझने के लिए जीवसमुदाहार अनुयोगद्वार द्रष्टव्य है। यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि क्षपकौणिमें जिन प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध होता है वहाँ बन्धके योग्य परिणामोंके लिए संक्लेशरूप या विशुद्धिरूप किसी प्रकारकी संज्ञाका प्रयोग नहीं किया गया है। उदाहरणार्थ सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, यश कीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय इन १७ प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध होता है, सो इसके स्वामित्वका निर्देश करते हुए लिखा है कि 'जो अन्यतर क्षपक सूक्ष्मसाम्परायिक जीव अन्तिम जघन्य स्थितिबन्ध कर रहा है वह इन प्रकृतियोंके जघन्य स्थिति बन्धका स्वामी है।' इस पद्धतिसे यह कथन स्थितिबन्ध अधिकारमें ही किया गया हो यह बात नहीं है, अनुभागबन्ध अधिकारमें भी इस पद्धतिको स्वीकार किया गया है । यथा 'सातावेदनीय-यश:कीर्ति-उच्चगोत्रका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध किसके होता है ? अन्तिम समयमें उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करनेवाले अन्यतर क्षपक सूक्ष्मसाम्परायिक जीवके होता है।' 'ओघसे पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, पाँच अन्तरायका जघन्य अनुभागबन्ध किसके होता है ? अन्तिम समयमें जघन्य अनुभागबन्ध करनेवाले अन्यतर क्षपक सूक्ष्मसाम्परायिक जीवके होता है। निद्रा-प्रचलाका जघन्य अनुभागबन्ध किसके होता है ? निद्रा-प्रचलाके बन्धके अन्तिम समयमें विद्यमान अपूर्वकरण क्षपकके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy