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________________ ३१० : सिद्धान्ताचार्य पं० फलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ ३. प्रकृति अनुयोगद्वारके भी प्रकृतिनिक्षेप, प्रकृतिनयविभाषणता आदि सोलह अधिकार हैं। उनमेसे प्रकृतिनिक्षेपके चार भेद हैं। कौन नय किस निक्षेपको स्वीकार करता है यह बतला कर इसमें प्रकृतिनिक्षेपके चार भेदोंका तथा प्रसंगसे मतिज्ञान आदि ज्ञानोंके अवान्तर भेदोंका सांगोपांग कथन किया गया है। ४. बन्धकके चार भेद हैं-बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और बन्धविधान । इनमेंसे बन्धके नामबन्ध, स्थापनाबन्ध, द्रव्यबन्ध और भावबन्ध ये चार भेद हैं। नैगम, व्यवहार और संग्रहनय इन सब बन्धोंको स्वीकार करता है। ऋजसूत्रनय स्थापनाको स्वीकार नहीं करता, शेषको स्वीकार करता है। तथा शब्दनय नामबन्ध और भावबन्धको स्वीकार करता है। इस प्रकार ये चार प्रकारके बन्ध हैं। इनका विस्तत विवेचन तो बन्धन अनुयोगद्वारमें किया ही है। साथ ही बन्धकका एक उदाहरण देकर तदनुसार 'महादण्डक जानने चाहिए' यह संकेतकर बन्धनीयका विस्तारके साथ विचार करते हए वर्गणा, वर्गणासमुदाहार, अनन्तरोपनिधा, परम्परोपनिधा, अवहार, यवमध्य, पदमीमांसा और अल्पबहुत्व इन आठ अधिकारोंका आश्रय लेकर २३ प्रकारको वर्गणाओंका इस अनुयोगद्वारमें निरूपण किया गया है। इसके बाद इसकी चूलिका प्रारम्भ होती है। इसमें निगोदका, बारहवें गुणस्थानवर्ती वीतराग साधके शरीरमेंसे उनके अभाव होनेके क्रमका तथा अन्य अनेक उपयोगी विषयोंका विस्तारके साथ प्रतिपादन किया गया है। अन्त में बन्धनके चौथे भेद 'बन्धविधानके चार भेद हैंप्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध ।' इतना संकेत मात्र किया है। मात्र इस सूत्रकी टीका करते हुए वीरसेन स्वामी लिखते हैं-'इन चार बन्धोंका विधान भूतबलि भट्टारकने महाबन्धमें विस्तारके साथ लिखा है, इसलिए हमने यहाँपर नहीं लिखा है । अतः सकल महाबन्धको यहाँ कथन करनेपर बन्धविधान समाप्त होता है। छठा खण्ड महाबन्ध है। इसमें बन्धनके चौथे भेद बन्धविधानका प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध इन चार अधिकारों द्वारा विस्तारसे वर्णन किया गया है। खुलासा इस प्रकार है १ प्रकृतिबन्ध-इस नामके अनुयोगद्वारमें प्रकृतिबन्धका विवेचन ओघ ओर आदेशसे प्रकृतिसमुत्कीतना आदि २४ अनुयोगद्वारोंका आश्रय लेकर विस्तारके साथ किया गया है। यह दुर्भाग्यकी बात है कि इस अनयोगद्वारके मूल ताड़पत्रीय प्रतिका प्रारम्भिक भाग त्रुटित हो जानेके कारण प्रकृति समुत्कीर्तनाका प्रारम्भका कुछ भाग तथा ताड़पत्रका २८वां पत्र त्रुटित हो जानेके कारण बन्धस्वामित्वविचयका मध्यका भाग वर्तमानमें उपलब्ध नहीं है। इससे यह ज्ञान सहज हो जाता है कि किस प्रकृतिके बन्धका स्वामी कौन है, कितना काल और अन्तर है आदि । साथ ही इससे हमें यह ज्ञान भी हो जाता है कि किस प्रकृतिका बन्ध होते समय अन्य किन प्रकृतियोंका बन्ध होता है। इसके अल्पबहुन्व अनुयोगद्वारका विवेचन करते हुए उसके जीवअल्पबहुत्व और अद्धाअल्पबहुत्व ऐसे दो भेद कर दिये हैं, इससे किस प्रकृतिके बन्धक जीवोंसे तद्भिन्न प्रकृतियोंके बन्धक जीवोंके अल्पबहुत्वका क्या क्रम है इसका ज्ञान तो हो ही जाता है। साथ ही कालकी अपेक्षा भी परिवर्तमान प्रकृतियोंके बन्धकालका परस्पर अल्पबहुत्व किस प्रकारका है यह ज्ञान भी हो जाता है। २. स्थितिबन्ध-इस अनुयोगद्वारमें पहले मूलप्रकृतिस्थितिबन्धकी प्ररूपणा करके बादमें उत्तरप्रकृतिस्थितिबन्धकी प्ररूपणा की गई है । मूलप्रकृतिस्थितिबन्धकी प्ररूपणा करते समय पहले स्थितिबन्धस्थानप्ररूपणा, निषेकप्ररूपणा, आबाधाकाण्डकप्ररूपणा और अल्पबहुत्व इन चार अनुयोगद्वारोंके आश्रयसे उसकी प्ररूपणा की गई है। तथा इसके बाद २४ अनुयोगद्वारोंको आधार बनाकर ओघ और आदेशसे स्थितिबन्धकी प्ररूपणा की गई है। उत्तरप्रकृतिस्थितिबन्धके कथनमें भी यही पद्धति स्वीकार की गई है। अन्तर केवल इतना है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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