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________________ चतुर्थखण्ड : ३०९ प्राप्त हो सका है। इस महान् प्रयासमें आचार्य घरसेन तो श्रेयोभागी हैं ही। साथ ही आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि भी कम श्रेयभागी नहीं हैं, जिनकी विलक्षण प्रतिभा और प्रयासके फलस्वरूप अंग-पूर्वश्रुत का यह अवशिष्ट भाग पुस्तकारूढ़ हुआ । भाव विभोर होकर मनःपूर्वक हमारा उन भावप्रवण परम सन्त आचार्योंको नो आगमभाव नमस्कार है । सम्यक् श्रुतके प्रकाशक वे तो धन्य हैं ही, उनकी षट्खण्डागमस्वरूप यह अनुपम कृति भी धन्य है । । षट्खण्डागमके जो छह खण्ड हैं उनमें प्रथम खण्डका नाम जीवस्थान है । उसके सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व ये आठ अनुयोगद्वार तथा प्रकृति समुत्कीर्तना, स्थान समुत्कीर्तना, तीन महादण्डक, जघन्य स्थिति, उत्कृष्ट स्थिति, सम्यक्त्वोत्पत्ति और गति - आगति ये नौ चूलिकाएँ हैं । इन अधिकारोंके जो नाम हैं उनके अनुसार ही गुणस्थानों और मार्गणाओंका आश्रय लेकर इसमें जीवोंका वर्णन किया गया है । दूसरा खण्ड क्षुल्लकबन्ध है । इसके स्वामित्वादि ग्यारह अधिकार हैं। उनके द्वारा इस खण्डमें बन्धक और अबन्धक जीवोंका संक्षेपसे निरूपण किया गया है । इस खण्डकी एक चूलिका भी है । उक्त अर्थका और साथ ही अनुक्त अर्थका विशेष रूपसे कथन करनेवाले प्रकरणको चूलिका कहते हैं । इसमें महादण्डक सूत्रोंका समावेश कर सब जीवोंकी अपेक्षा अल्पबहुत्वका निरूपण किया गया है । तीसरा खण्ड बन्धस्वामित्वविचय है । इसमें चौदह गुणस्थानों और चौदह मार्गणाओंकी अपेक्षा ज्ञानावरणादि आठ कर्मोकी उत्तर प्रकृतियोंका कौन जीव बन्धक है और कौन जीव अबन्धक है इसका विस्तार से विचार किया गया है । चौथा खण्ड वेदना है । इसमें सर्वप्रथम वेदना खण्डकी उत्पत्तिके मूल स्रोतका निर्देश करते हुए मूलमें ही बतलाया है कि आग्रायणीय पूर्वकी पाँचवीं वस्तुके कर्मप्रकृति नामक चौथे प्राभृतके कृति और वेदना आदि २४ अनुयोगद्वार हैं । कृति और वेदनामें वेदनाकी प्रधानता होनेसे इस खण्डको वेदनाखण्ड कहते हैं । उनमें से कृतिका निरूपण करते हुए उसके १ नामकृति, २ स्थापनाकृति, ३ द्रव्यकृति, ४ गणनाकृति, ५ ग्रन्थकृति, ६ करणकृति और ७ भावकृतिका प्रथम अधिकार द्वारा निरूपण किया गया है। तथा वेदनाका निरूपण करते हुए उसका वेदनानिक्षेप आदि १६ अधिकारों द्वारा निरूपण किया गया है । इस प्रकार इन दो अधिकारों के आश्रयसे वेदनाखण्डमें कृति और वेदनाका निरूपण हुआ है । पाँचवां खण्ड वर्गणा है । इसमें स्पर्श, कर्म, प्रकृति तथा बन्धनके बन्धविधान भेदको छोड़कर बन्ध, बन्धक और बन्धनीयका कथन हुआ है । विशेष खुलासा इस प्रकार है १. स्पर्शअनुयोगद्वारके स्पर्शनिक्षेप, स्पर्शनयविभाषणता आदि १६ अनुयोगद्वार हैं । उनमेंसे स्पर्शनिक्षेपके नामस्पर्श, स्थापनास्पर्श, द्रव्यस्पर्श, एकक्षेत्रस्पर्श, अनन्तरक्षेत्र स्पर्श, देशस्पर्श, त्वक्स्पर्श, सर्वस्पर्श, स्पर्शस्पर्श, कर्मस्पर्श, बन्धस्पर्श, भव्यस्पर्श और भावस्पर्श इन तेरह प्रकारके स्पर्शोका, किस स्पर्शको कौन नय स्वीकार करता है यह स्पष्टीकरण करके कथन किया गया है । २. कर्मअनुयोगद्वारके कर्मनिक्षेप, कर्मनयविभाषणता आदि सोलह अधिकार हैं । उनमेंसे कर्मनिक्षेपके नामकर्म, स्थापनाकर्म, द्रव्यकर्म, प्रयोगकर्म, समवदानकर्म, अधः कर्म, ईर्यापथकर्म, तपःकर्म, क्रियाकर्म और भावकर्म ये दस भेद हैं । इनमेंसे किस कर्मको कौन नय स्वीकार करता है इसका निर्देश करनेके बाद इस अनुयोगद्वारमें उक्त दस कर्मोंका कथन किया गया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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