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________________ २९० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ यहाँ कुम्भकार स्वतन्त्र वस्तु है और मिट्टी स्वतन्त्र वस्तु है। दोनों ही अपनी-अपनी षट्कारक रूप शक्तियोंसे युक्त हैं । इसलिए बाह्य व्याप्तिवश मिट्टीके कर्तृत्व धर्मका कुम्भकारके कर्तत्व धर्ममें समारोप कर यह वचन कहा गया है कि कुम्भकारने घटकार्यको किया। यहाँ कुम्भकारका वास्तविक कार्य योग और विकल्प है तथा मिट्टी का वास्तविक कार्य घटपरिणाम है। यह वस्तुस्थिति है। किन्तु इस वस्तुस्थितिको गौण कर व्यवहारी जन बाह्य व्याप्तिवश ऐसा विकल्प करते है कि 'कुम्भकारने घट बनाया' जो असद्भूत होनेसे उपचरित ही है । पराश्रित कथन इसीका दूसरा नाम है । कोई भी वस्तु स्वरूपसे पराश्रित नहीं हआ करती, अन्यथा किसी भी वस्तुको स्वरूपसे उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक नहीं सिद्ध किया जा सकता । जैसे वस्तुका ध्रुवपना स्वरूप है, वैसे ही उसका उत्पाद और व्यय भी स्वरूप है । इसलिए कौन वस्तु कब क्या है ? इसकी सिद्धिका बाह्य-व्याप्ति या कालप्रत्यासत्तिवश जब जो हेतु बनता है तब उसमें विवक्षित अन्य वस्तुके कर्तृत्व आदि धर्मोंका आरोप कर वैसा व्यवहार किया जाता है। यहाँ उक्त प्रकारके व्यवहार करनेका अन्य कोई प्रयोजन नहीं हैं। ___इस प्रकार इतने विवेचनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि लेखकने व्यवहारनय सामान्य शब्द रख कर अपने विकल्पके अनुसार असद्भूतव्यवहारनयका जो पूर्वोक्त लक्षण कल्पित किया है, वह आगमबाधित हैं । युक्ति और अनुभवसे विचार करने पर भी उसमें बाधा आती है। खुलासा पहले कर ही आए हैं । यद्यपि व्यवहार नयसे वस्तुको पराश्रित कहा जाता है। किन्तु व्यवहारनयका लक्षण क्या है ? जिसे ध्यानमें रख कर वस्तुको पराश्रित कहा जाता है। इसको ध्यानमें न लेकर पहले उन्होंने प्रत्येक वस्तुकी पराश्रित स्थितिको यथार्थमें स्वीकार किया और फिर उसे ग्रहण करने वाले नयको व्यवहारनय कहा। यही उनकी विपरीत मान्यता है । असद्भूत व्यवहारनयका कहाँ आगम सम्मत लक्षण और कहाँ व्याकरणाचार्य द्वारा कल्पित लक्षण इन दोनोंमें कितना अन्तर है ? इस पर आगमाभ्यासियोंको ध्यान देना चाहिए । इस प्रकार आगम प्रसिद्ध व्यवहारनयके लक्षणको साक्षी रख कर विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि पर वस्तु अन्य वस्तुके कार्यमें वास्तविक रूपसे सहायक नहीं हुआ करती, किन्तु बाह्य व्याप्तिवश उसमें अन्यके कार्यमें सहायक होने का व्यवहार किया जाता है । इस लिए वह अपनेसे भिन्न अन्य वस्तुका कार्य करनेमें स्वरूपसे असमर्थ होनेके कारण उस अन्य वस्तके कार्यके प्रति अकिंचित्कर ही होती है । क्योंकि जिस समय मिट्टी अपने क्षेत्रमें अपनी परिणाम शक्ति द्वारा घट परिणाम को करती है, उसी समय कुम्भकार उससे बाह्य अपने क्षेत्रमें योग और विकल्पको करता है। इस प्रकार इन दोनों में प्रतिविशिष्ट कालप्रत्यसत्ति होनेसे मिट्टीने घट कार्यको किया, इस निश्चयको प्रसिद्धिका हेतु हो, तभी कुम्भकारमें घटके कर्तापनेका व्यवहार करना बनता है। दूसरी वस्तुके कार्य में यथार्थ सहायक होनेसे नहीं । वास्तवमें कोई भी अन्य वस्तु अपने से भिन्न दूसरी वस्तुके कार्य में सहायता नहीं करती, यह परमार्थ सत्य हैं। इस परमार्थ सत्यका अपलाप न हो, इस दृष्टिको सामने रख कर ही व्यवहार नयके वक्तव्यकी स्थिति स्पष्टकी जानी चाहिए। इससे भिन्न अन्य प्रकारसे जितना भी लिखा जाता है, उसकी असत्यकी कोटिमें ही परिगणना होती है। यह निश्चय षट्कारकका संक्षिप्त विवरण है। व्यवहार षट्कारकका स्वरूप निर्देश करते हुए पंडितजीने व्यवहारसे जिनदेव, गणधरदेव, नेमिचन्द सिद्धान्तचक्रवर्ती आदिको गोम्मटसार ग्रन्थका कर्ता कहा है । जो ग्रन्थरूप कार्य हुआ उसे कर्म कहा है। इस कार्य के होने में जो सहायक हुए उन्हें करण कहा है। भव्योंके लिए इसकी रचना हुई, अतः उसे सम्प्रदान कहा है। अन्य कार्यसे निवृत हो इसकी रचनाकी, अतः इन दोनोंका आधार एक होनेसे उसे अपादान कहा है और जिस स्थान पर इसकी रचना हुई, उसे अधिकरण कहा है । यह व्यवहार षट्कारक व्यवस्था है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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