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________________ चतुर्थ खण्ड : २९१ यहाँ इसे व्यवहार षटकारक इसलिए कहा गया है कि वस्तुत. स्वयंसिद्ध श्रुत ही आप कर्ता होकर परिणाम शक्ति युक्त अपने द्वारा जिन शासन रूप प्रयोजनके लिए अपने अन्य कार्यसे निवृत होकर अपनेमें गोम्मटसार रूप कर्मको जब प्राप्त हुआ, तब प्रतिविशिष्ट कालप्रत्यासत्तिवश अन्य जिस-जिसमें जिस रूपसे व्यवहार हेतुता कल्पितकी गई, उस-उसमें कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण रूपसे स्वीकार की गई है। इस प्रकार एक कालमें निश्चय षटकारकके साथ व्यवहार षटकारककी व्यवस्था बन जानेसे स्वामी समन्तभद्रने यह वचन कहा है बाह्य तरोपाधिसमग्रतेयम् । कार्येषु ते द्रव्यगतः स्वभावः ।। 'अर्थात् लोकमें जितने भी कार्य होते हैं, उन सबमें बाह्य और अभ्यन्तर उपाधिकी समग्रता पाई जाती है । यह द्रव्यगत स्वभाव है। यहाँ उपादान कारण और बाह्य निमित्त दोनोंको उपाधि कहा गया है। साथ ही यह भी बतलाया है कि यह द्रव्यगत स्वभाव है कि प्रत्येक द्रव्यका जब जो कार्य होता है, उसमें बाह्य और अभ्यन्तर उपाधिकी समग्रता नियमसे पाई जाती है। इस प्रकार प्रत्येक कार्य और उसकी बाह्य-अभ्यन्तर सामग्री इन तीनोंकी युगपत् प्राप्ति प्रत्येक समयमें होती रहती है; ऐसी वस्तु व्यवस्था है। इसमेंसे किसी एककी प्राप्ति हो और दूसरेकी न हो, ऐसा नहीं है। क्योंकि इनमें परस्पर अविनाभाव स्वीकार किया गया है। उसमें भी उपादानउपादेयभावके विषयमें क्रमभावी अविनाभावका निर्देश करते हुए स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षामें यह वचन दृष्टिगोचर होता है कारण-कज्जविसेसा तीसु वि कालेसु होंति वत्थूणं । एक्केक्कम्मि य समये पुव्वुत्तरभावमासिज्ज ॥२२३।। वस्तुके पूर्व और उत्तर परिणामको लेकर तीनों ही कालोंमेंसे प्रत्येक समयमें कारण-कार्य भाव होता है। यहाँ उपादान-उपादेय रूपसे कारण कार्यभावका निर्देश किया गया है। इसी तथ्यका निर्देश करते हुए 'प्रमेयरत्नमाला' में यह वचन आया है “अव्यवहितपूर्वोत्तरक्षणयोः हेतु-फलभावदर्शनात् ।" अव्यवहित पूर्व और उत्तर क्षणमें क्रमसे हेतुभाव और फलभाव देखा जाता है । अब प्रश्न यह है कि जब पूर्व क्षणका ध्वंस (व्यय) होकर ही उत्तर क्षणकी उत्पत्ति होती है, तो उन दोनोंमें कारण-कार्यपना क्यों स्वीकार किया गया है । क्योंकि जब पूर्व क्षणका सद्भाव है, तब उत्तर क्षण नहीं पाया जाता और जब उत्तर क्षण पाया जाता है तब पूर्व क्षणका अभाव रहता है। ऐसी अवस्थामें पूर्वक्षणने उत्तरक्षणको उत्पन्न किया, ऐसा कैसे कहा जा सकता है ? इसका समाधान यह है कि पूर्व क्षण और उत्तर क्षण इन दोनोंमें अविनाभाव सम्बन्ध वश परस्पर कारण-कार्यभाव स्वीकार किया गया है। और इसी आधारपर उपादान कारणको अपने उपादेय (कार्य) का नियामक स्वीकार किया गया है। इतना अवश्य है कि नैगमनयसे उपादान और उप देयमें कालकी अपेक्षा अभेद स्वीकार कर उपादानको उपादेयका जनक कहा गया है। ऋजुसूत्रनयसे विचार करनेपर प्रत्येक कार्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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