SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 326
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षट्कारक-व्यवस्था आचार्यकल्प पं० टोडरमल जी निश्चय षट्कारकके सम्बन्ध में स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि षट्कारकका परिणमना प्रत्येक वस्तुका अपना स्वभाव है। यथा स्वाश्रित स्वरूप षट्कारक विचारी ऐसे । निश्चयकरि आनको विधान न बखानिए ॥ 1 लोकमें जीवादि जितने भी द्रव्य हैं उनमेंसे प्रत्येक द्रव्य में कर्ता कर्म आदि छह कारक रूप शक्तियाँ होती ही हैं। उनसे जीवादि द्रव्योंका अभेद स्वीकार करके उन द्वारा कार्य द्रव्यको स्वीकार करना स्वाश्रित कथन है । प्रत्येक द्रव्य प्रति समय ऐसा ही है । इसलिए प्रकृतमें इसे स्वीकार करने वाला विकल्प और वचन निश्चयनय कहलाता है। निश्चयनय वस्तुके स्वरूपको स्वीकार करता है और उसमें पर रूपका निषेध करता है। इसलिए उस द्वारा परसापेक्ष कथनका निषेध होना स्वाभाविक है क्योंकि जिस प्रकार निश्चय कथनका विषय वस्तुस्वरूप होनेसे यथार्थ संज्ञाको धारण करता है, उस प्रकार परसापेक्ष कथनका विषय वस्तु स्वरूप न होनेसे; अतएव उपचरित होनेसे यथार्थ संज्ञाको नहीं धारण कर सकता। यही कारण है कि पंडितजी ने इस तथ्यको ध्यान में रखकर 'निश्चय करि आनकी विधान न बसानिए यह वचन कहा है। 'जैन दर्शन में कार्य कारण भाव और कारक व्यवस्था' में लेखकका कथन है— इसका यह तात्पर्य है। कि कार्योत्पत्ति में निमित्त कारण अकिंचित्कर होकर व्यवहारनयका विषय नहीं होता है, किन्तु स्वयं (आप) कार्य रूप परिणत न होकर उपादानका सहायक होनेके आधार पर व्यवहारनयका विषय होता है ।' यहाँ पर इसके पूर्व निश्चयनय और व्यवहारनयके कतिपय भेदोंका निर्देश करके व्यवहारनयका एक लक्षण यह भी लिखा है ( पृ० ११४ ) - ' और वस्तुकी परतः सिद्धि या पराश्रित स्थिति ग्रहण करनेवाला व्यवहारमय होता है।' निश्चय ही इस लक्षणको लिखते समय लेखककी दृष्टि असद्भूत व्यवहारनय पर रही होगी । इस लिए आगम प्रसिद्ध असद्भूत व्यवहारनयके लक्षणका निर्देश कर उक्त लक्षणकी समीक्षा करनी होगी । ' आलाप पद्धति में असद्भूत व्यवहारनयका यह लक्षण उपलब्ध होता है अन्यत्र प्रसिद्धस्य धर्मस्य अन्यत्र समारोपणम- सद्भूतव्यवहारः । असद्भूतव्यवहार एवं उपचारः । अन्य वस्तु प्रसिद्ध धर्मका अन्य वस्तुमें समारोप करना असद्भुत व्यवहार है और असद्द्भूत व्यव हारका नाम ही उपचार है । इसका यह अर्थ है कि जब विवक्षित किसी एक वस्तुके धर्मका अविनाभाव या बाह्य व्याप्तिवश अन्वयव्यतिरेकको सूचित करने वालो काल प्रत्यासत्तिको लक्ष्यमें रखकर दूसरी वस्तुमें समारोप कर उस द्वारा विवक्षित वस्तुकी प्रसिद्धि की जाती है, तब वह असद्भूत व्यवहारनयका विषय होता है । यया कुम्भकार घटकार्यका कर्त्ता निमित्त है यह कहना और ऐसा ही विकल्प असद्भुत व्यवहारनयका विषय है । ३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy