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________________ २८८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ कार्मण शरीरकी स्थिति होती है उसी प्रकार अब उनके नोकर्म वर्गणाओंके आने और जानेसे शरीरकी स्थिति होती है । इस प्रकार आध्यात्मिक पृष्ठभूमिसे विचार करने पर भी यही ज्ञात होता है कि केवली जिन क्षुधादि दोषोंसे रहित हैं इसलिये वे कवलाहार नहीं लेते । यहाँ एक शंका की जातो है कि जब केवलीके क्षुधादि दोष नहीं होते तो तत्त्वार्थसूत्रमें उनके क्षुधादि ग्यारह परीषह क्यों बतलाई गई हैं ? बात यह है कि केवलीके वेदनीयका उदय माना जाता है, इसलिये कारणमें कार्यका उपचार करके केवलीके ग्यारह परीषह बतलाई हैं। अब प्रश्न यह होता है कि क्या अन्यत्र भी तत्त्वार्थसूत्रकारने उपचारसे कथन किया है ? तत्त्वार्थसूत्रकारने एकाग्रचिन्ता निरोधको ध्यान कहा है । ध्यानका यह लक्षण शुक्ल ध्यानके पहले दो भेदोंमें घटता है, अन्तिम दो भेदों में नहीं, क्योंकि तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानमें चिन्ता ही नहीं रहती फिर निरोध किसका । तब भी ध्यानका कार्य कर्मक्षय देख कर तत्त्वार्थसूत्रकारने जिस प्रकार तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानमें ध्यानका उपचारसे कथन किया है उसी प्रकार केवलीके ग्यारह. परीषहोंका कथन भी उपचारसे जानना चाहिये। एक बात और है वह यह कि जो भाई सर्वथा यह समझते हैं कि असाताके उदयसे भूख प्यास लगती है उनका ऐसा समझना गलत है । भूख व प्यास अपने कारणोंसे उत्पन्न होती है। हाँ भूख व प्यासमें असाता वेदनीयकी उदीरणा निमित्त हो सकती है, पर उनके असाता-वेदनीयकी उदीरणा नहीं होती क्योंकि उसकी उदीरणाकी व्युच्छित्ति ६वें गुणस्थानके अन्तिम समयमें हो जाती है। इसलिये उनको भूख प्यासकी बाधा नहीं होती। हम संसारी जीवोंकी शरीर स्थिति भिन्न प्रकारकी है और केवली जिनके भिन्न प्रकारकी, अतः यही निष्कर्ष निकलता है कि उन्हें हम संसारी जनोंके समान कवलाहारकी आवश्यकता नहीं पड़ती। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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