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________________ चतुर्थ खण्ड : २८७ अब इस तीसरी दलोलके अन्तर्गत दो बातोंका और विचार करना है। पहली यह कि यह मान्यता साम्प्रदायिक है और दूसरी यह कि यह मान्यता पीछेसे गढ़ी गई है । सो जब आचार्य कुन्दकुन्द और समन्तभद्र जैसे प्राचीन आचार्योने आप्तको क्षुधादि दोषोंसे रहित माना है तब यह तो कहा नहीं जा सकता कि यह मान्यता पीछेसे गढ़ी गई है। अब रही साम्प्रदायिक दष्टिकी बात सो हम इसका आगे ही विचार करने वाले हैं, कि क्या इसके पीछे कोई आध्यात्मिक पृष्ठभूमि है या सम्प्रदाय विशेषने ही इसे खड़ा कर दिया है। इस प्रकार तीनों दलीलोंका संक्षेपमें उत्तर हुआ। अब प्रतिज्ञानुसार केवली क्षुधादि दोषोंसे रहित होते हैं इसकी आध्यात्मिक पृष्ठभूमि क्या है उसका विचार करते हैं। जीवकाण्डमें बतलाया है कि पृथ्वी', जल, अग्नि, वायु, केवली, आहारक, देव और नारकी इनके शरीरमें निगोदिया जीव नहीं रहते । इनका शरीर निगोदियोंसे अप्रतिष्ठित है। केवली जिनका शरीर निगोद जीवोंसे रहित है इसकी पुष्टि षट्खण्डागमके मूल सूत्रोंसे भी हं.ती है। वहाँ बतलाया है कि बारहवें गुणस्थानमें सब निगोद जीवोंका अभाव हो जाता है। अभाव होनेका क्रम यह है कि 'क्षीणमोह गुणस्थानके पहले समयमें भी निगोदिया जीव मरते हैं, दुसरे समयमें भी मरते हैं, तीसरे समयमें भी । इस प्रकार क्षोणमोहके अन्तिम समय तक निरन्तर मरते रहते हैं। पहले समयमें मरने वाले अनन्त जीव है, दुसरे समयमें भी मरनेवाले अनन्त जीव है। क्षीणमोहके अन्तिम समय तक यही क्रम जानना चाहिये' । यथा _ 'अत्थि खीणकसायपढमसमए मदजीवा। विदियसमए मदजीवा वि अत्थि। तदियसमए मरंतजीवा वि अत्थि एवं णेयव्वं जाव खीणकसायचरिमसमओ त्ति । खीणकसायपढमसमए मदजीवा केत्तिया ? अणंता । विदियसमए मदजीवा केत्तिया ? अणंता। एवं णेयव्वं जाव खीणकसायचरिमसमओ त्ति ।' यहाँ निगोद जीवोंका प्रकरण होनेसे केवल उनका ही निषेध किया है। फलितार्थ यह है कि केवली जिनका शरीर त्रस और स्थावर सब प्रकारके जीवोंसे रहित है। इसका यह अभिप्राय है कि केवली जिनके शरीर में केवल वे ही तत्त्व रहते हैं जिनमें जीव पैदा नहीं होते । वे सब तत्त्व नष्ट हो जाते हैं जिनमें त्रस और स्थावर जीव पैदा होते रहते हैं । आहार पानीका लेना और उनसे मल, मूत्र, कफ, पित्त आदिका बनना ये ऐसे तत्त्व है जिनमें निरन्तर बस और स्थावर जीव पैदा होते रहते हैं । इसलिये केवली जिनके शरीरमें निगोदिया जीव नहीं होते इस मान्यता द्वारा पर्यायान्तरसे केवलीके भूख, प्यास और मल-मत्र आदि दोषोंका ही निषेष किया है। हम संसारी जीवोंके शरीरमें त्रस और निगोदिया जीव भरे पड़े हैं। वे निरन्तर शरीरका शोषण कर रहे हैं, जिससे शरीर में उष्णता पैदा होकर आहार पानीकी आवश्यकता पड़ती है। पर केवलीके शरीरमें इस प्रकारकी उष्णताका कारण नहीं रहा । उना शरीरका शोषण अब अन्य त्रस व निगोदिया जीवोंके कारण नहीं होता, अतः शरीरमें आन्तर उष्णता पैदा होकर उनके शरीरका अपक्षय नहीं होता। और इसलिये प्रति समय उनके शरीरके जितने परमाणु निर्जीर्ण होते हैं उतना नवीन परमाणुओंका ग्रहण हो जानेसे कवलाहारके बिना भी उनके शरीरकी स्थिति बनी रहती है । जिस प्रकार कर्म वर्गणाओंके आने और जानेसे १. देखो जीवकाण्ड गाथा २०० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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